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६९. पत्र : एस्थर फैरिंगको

मोतीहारी
जनवरी १३, १९१८

प्रिय एस्थर,

यहाँ-वहाँ भटकते रहनेके कारण मैं तुम्हारे पत्रोंका जवाब नहीं दे सका। मैं कलकत्तामें था, वहाँसे बम्बई गया और फिर आश्रम, और कल ही यहाँ लौटा हूँ। कई प्रकारके अनुभव हुए, पर समयाभावके कारण उनको लिख नहीं सकता।

यह कहना कि इस संसारमें पूर्णता प्राप्त करना सम्भव नहीं, ईश्वरसे इनकार करना है। हमारे लिए सर्वथा पाप-मुक्त होना सम्भव नहीं—स्पष्ट है कि यह कथन जीवनकी एक अवस्था विशेषके लिए ही सही है। परन्तु इसका समर्थन पानेके लिए शास्त्रोंके पन्ने पलटनेकी जरूरत नहीं। प्रयत्न द्वारा और यम-नियमोंके पालनसे हम मनुष्योंको हमेशा उन्नतसे उन्नततर बनते देखते हैं। उन्नत करनेकी सामर्थ्यकी सीमा नहीं बाँधी जा सकती। अगर मुझे ऐसा लगे कि मैं इस संसारमें प्रेमको प्राप्त नहीं कर सकूँगा, तो मुझे जीवनमें बिलकुल दिलचस्पी न रहे। सबसे बड़ी बात तो यह है कि हमारी प्रेमकी सामर्थ्य सतत बढ़ती जाती है। प्रक्रिया बहुत धीमी जरूर है। जो आदमी हमें अच्छा काम करनेसे भी रोके, उससे हम कैसे प्रेम कर सकते हैं? फिर भी ऐसे अवसरोंपर ही हमारी सच्ची परीक्षा होती है।

आशा है, तुम्हारा चित्त अब अधिक शान्त हो गया होगा। भगवान् करे, आश्रमके प्रति तुम्हारा प्रेम तुम्हें वहाँ[१] अपने कर्त्तव्य-पालनके प्रयत्नमें बल दे। आश्रमका उद्देश्य हमें यही सिखाता है कि अपने हिस्से में आया हुआ काम हम खूब ध्यान और प्रसन्न मनसे करें। हमारी इच्छाएँ (पवित्रसे-पवित्र होनेपर भी) पूरी नहीं होतीं—इसमें भी एक गूढ़ अर्थ है। हमारी इच्छा नहीं बल्कि ईश्वरकी इच्छा पूरी होगी।

आशा है कि तुम्हारी तमिलकी पढ़ाई ठीक चल रही होगी।

नटेसन ऐंड कं॰ ने मेरे भाषणों और लेखोंको एक पुस्तक[२] के रूपमें प्रकाशित किया है। वह पुस्तक तुमको उनसे मिली या नहीं? समाज-सेवाके सम्बन्धमें कलकत्तेके अपने भाषणकी एक प्रति मैं तुमको भेज रहा हूँ।

सस्नेह

तुम्हारा,
बापू

[अंग्रेजीसे]
माई डियर चाइल्ड
 
  1. तिरूकोइलूर—दक्षिणमें, जहाँ एस्थर फैरिंग उस समय थीं।
  2. स्पीचेज ऐंड राइटिंग्ज ऑफ महात्मा गांधी।