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११०. पत्र : भगवानजी मेहताको

आश्रम
पौष बदी [फरवरी ११, १९१८]

भाईश्री भगवानजी,

आपका पत्र मिला। उससे जाहिर होता है कि कभी-कभी सहायता करनेके हेतुसे किये हुए कार्यका परिणाम उलटा होता है। 'गुजराती' में प्रकाशित लेखके बारेमें मुझे ऐसा ही लगा है। काठियावाड़का काम मैं अपने ही ढंगसे कर सकूँगा।

मोहनदासके वन्देमातरम्

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी॰ डब्ल्यू॰ ३०२७) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य : नारणदास गांधी

१११. पत्र : रलियातबेनको

[साबरमती]
फरवरी ११, १९१८

पूज्य बहन,

तुम्हें पत्र तो नहीं लिखता, किन्तु तुम्हारी मूर्ति मेरी आँखोंसे घड़ी-भर भी दूर नहीं रही। तुम मेरे पास नहीं हो, इसका जो घाव मुझे लगा है, वह कभी भर नहीं सकेगा। उसे तुम्हीं भर सकती हो। तुम मेरे पास रहोगी तो तुम्हारा मुँह देखकर मुझे माँकी कुछ-न-कुछ याद तो आयेगी ही; इसलिए भी तुमने मुझे दूर रख छोड़ा है। मैं तुम्हारे विरुद्ध यह शिकायत तो करता ही रहूँगा। तुम मुझे अभिमानपूर्वक यह कहनेका अवसर देती ही नहीं कि मेरी बहन भी मेरे काममें मेरी मदद कर रही है। मैं पत्र लिखूँ, तो उसमें भी अपने मनका दुःख बताने और जैसे ताने अभी मार रहा हूँ वैसे ताने मारनेके सिवा क्या कर सकता हूँ। मैं इसलिए भी पत्र लिखनेमें ढिलाई करता हूँ। मैं जानता हूँ कि आजकल महँगाई है। किन्तु मैं तुम्हें अधिक रुपया कहाँसे दूँ? मुझे मित्रसे लेकर रुपये देने होते हैं। मैं किस मुँहसे रुपया माँगूं। वे भी कहेंगे : "तुम्हारी बहनको तो तुम्हारे साथ ही रहना चाहिए।" इसका जवाब में क्या दूँ? दुनिया मुझे भ्रष्ट नहीं मानती, परन्तु तुम्हारे लिए तो मैं भ्रष्ट हूँ। ऐसी हालतमें मैं एक ही बात कह सकता हूँ। तुम जो दुःख भोग रही हो, मैं उससे कम नहीं भोग रहा। इसलिए तुम्हारे दुःख मुझे असह्य प्रतीत नहीं होते। तुम पिसाई-कुटाई करके पैसेकी कमी पूरी करती हो, इसमें मुझे जरा भी शर्म नहीं लगती। मेरी तो इतनी ही प्रार्थना है कि तुममें कुछ भी दयाभाव हो, तो तुम यहाँ आकर मेरे साथ रहो और मेरे काममें भाग लो। ऐसा करोगी तो अभी१४-१२