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गोखले और उनका महामंत्र

शिष्य गुरुके विषयमें क्या लिखे ? कैसे लिखे ? शिष्यका गुरुके विषयमें कुछ लिखना एक तरहकी उद्धतता ही होगी। सच्चा शिष्य तो गुरुमें समा जाता है। इसलिए वह टीकाकार तो हो ही नहीं सकता। जो दोष देखती है, वह भक्ति ही नहीं है, और जो गुण-दोषका पृथक्करण नहीं कर सकता, ऐसे लेखककी स्तुतिको अगर लोग स्वीकार न करें, तो शिकायत नहीं की जा सकती। गुरुके बारेमें शिष्यकी टीका तो शिष्यका आचरण ही है । गोखले मेरे राजनीतिक गुरु थे, ऐसा मैंने कई बार कहा है। इसलिए उनके विषयमें कुछ लिखनेके लिए मैं अपनेको असमर्थ मानता हूँ। जो लिखूंगा वह मुझे न्यून ही लगेगा । मुझे लगता है कि गुरु-शिष्यका सम्बन्ध शुद्ध आध्यात्मिक सम्बन्ध है। उसका निर्माण गणित-शास्त्रक पद्धतिपर नहीं होता। मानो अनायास हुआ हो, इस तरह क्षणमात्रमें यह सम्बन्ध बँधता है और एक बार बँधनेपर फिर कभी टूट नहीं सकता।

सन् १८९६ हमारे बीच यह सम्बन्ध बँधा ।[१]उस समय तो मुझे इस सम्बन्धका कुछ भी भान नहीं था । उनको भी नहीं था। इसी समय मुझे गुरुके गुरु,[२]लोकमान्य तिलक,सर फीरोजशाह मेहता,[३]न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी[४] डा० भाण्डारकर, [५]और इसी तरह बंगाल तथा मद्रासके नेताओंको नमस्कार करनेका शुभ अवसर प्राप्त हुआ था। में उस समय बिलकुल नवयुवक था। सभीने मेरे ऊपर प्रेमकी वर्षा की थी। वे ऐसे सुखद प्रसंग थे जिन्हें मैं जीवनभर भूल नहीं सकता। लेकिन जो शीतलता मुझे गोखलेके सम्पर्क-में मिली, वह में दूसरोंके पास नहीं प्राप्त कर सका । गोखलेने मेरे ऊपर अधिक प्रेम उँडेला हो, ऐसा मुझे बिलकुल स्मरण नहीं है। किसने कितना प्रेम किया, यही बताना हो तो मुझे ऐसा स्मरण है कि डॉ० भाण्डारकरने मेरे प्रति जैसा अपूर्व प्रेमभाव प्रदर्शित किया वैसा किसी और ने नहीं किया। उन्होंने मुझसे कहा," 'मैं आजकल सार्वजनिक प्रवृत्तियोंमें भाग नहीं लेता, लेकिन मैं तुम्हारी खातिर तुम्हारे प्रश्नसे सम्बन्धित सभामें[६] सभापतित्व करना स्वीकार करूँगा । ।" तो भी मुझे केवल गोखले ही प्रेमबन्धनमें बाँध सके। हमारे इस सम्बन्धने तुरन्त ही कोई आकार नहीं ग्रहण किया । सन् १९०२ में[७]जब में कलकत्तेकी कांग्रेसमें उपस्थित था, अपनी शिष्य-दशाका मुझे उस समय हुआ। लगभग सभी वरिष्ठ नेताओंके दर्शनका लाभ मुझे इस बार फिर मिला। मैंने देखा कि गोखले मुझे भूले नहीं थे। इतना ही नहीं, उन्होंने मुझे आश्रय भी दिया। स्थूल परिणाम इसके अनुसार ही आये । मुझे वे अपने घर खींच ले गये । विषय-निर्धारिणी सभामें मुझे लगा कि मैं यहाँ व्यर्थ ही आया । प्रस्तावोंकी चर्चा चल रही थी, उस



  1. देखिए खण्ड २, पृष्ठ ९७ १, पृष्ठ ३९५३. (१८४५-१९१५); भारतीय कांग्रेसके एक प्रमुख नेता । देखिए खण्ड
  2. २. न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे (१८४२-१९०१); एक यशस्वी न्यायाधीश, समाज-सुधारक और ग्रंथकार । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेसके एक संस्थापक । देखिए खण्ड २, पृष्ठ ४२०
  3. ३.(१८४५-१९१५); भारतीय कांग्रेसके एक प्रमुख नेता । देखिए खण्ड १,पृष्ठ ३९५३.
  4. ४.(१८४४-१९०६); न्यायाधीश, विधानसभाके सदस्य; १८८७ में मद्रास कांग्रेस-अधिवेशनके अध्यक्ष।
  5. ५. डॉ० रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर (१८३७-१९२५); प्राच्य विद्याविशारद और समाज सुधारक।
  6. देखिए "पूनामें भाषण", खण्ड २, पृष्ठ १४७-४८।
  7. 'सन् १९०१ में होना चाहिए।