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१३५. पत्र : रामदास गांधीको

फरवरी २७, १९१८

चि० रामदास,

आज में तुम्हारे बारेमें सोचता रहा हूँ । तुम्हारे पत्रोंमें मुझे निराशा दिखाई देती है। तुम्हें शिक्षाकी कमी महसूस होती है। तुम्हें ऐसा भी लगता है कि तुम ठीक ठिकानेपर नहीं हो। तुम मेरे सामने होते तो मैं तुम्हें अपनी गोदमें लेकर आश्वासन देता। तुम्हें सन्तोष नहीं दे पाता; अपनी इतनी कमी समझता हूँ । मेरे प्रेममें कहीं-न-कहीं कमी होनी चाहिए। मेरी सभी त्रुटियाँ अनजाने हुई होंगी, यह समझकर मुझे क्षमा करना । बच्चोंका माता-पिता पर बड़ा हक है। वे माता-पिताके सम्मुख सदा विनीत अवस्था में रहते हैं। माता-पिताकी भूल उन्हें बरबाद कर देती है । हमारे शास्त्रोंने माता-पिताकी परमेश्वरसे तुलना की है। ऐसी जिम्मेदारी उठा सकनेवाले माता-पिता दुनियामें विरले ही होते हैं। माता-पिता के अत्यन्त संसारी होनेके कारण विरासतमें उनकी सांसारिकता बच्चों में आ जाती है और इस प्रकार उत्तरोत्तर स्वार्थमय शरीर उत्पन्न होते रहते हैं । तुम अपनेको अयोग्य पुत्र क्यों मानते हो ? क्या तुम यह समझ सकते हो कि तुम अयोग्य होगे, तो मैं भी अयोग्य ठहरूँगा ? मैं अयोग्य ठहरना नहीं चाहता, इसलिए तुम अयोग्य कैसे बन सकते हो ? तुम धन प्राप्त करनेका प्रयत्न करते हुए भी उसके लोभसे सत्यको न छोड़ोगे। तुम विवाहकी इच्छा रखते हुए भी विवेकसे काम लोगे । अतः में तुम्हें योग्य पुत्र ही मानूँगा ।

तुम मुझसे क्षमा न माँगो । मुझे तुमने असन्तोष नहीं दिया। मैं चाहता हूँ कि तुम अपने वहाँके प्रयोग पूरे करके मेरे पास आओ। तुम्हारे विवाहमें में भाग लूँगा । तुम्हें अध्ययन करना हो, तो में उसमें मदद दूँगा। तुम अपना शरीर लोहे जैसा मजबूत बना लोगे, तो दूसरी चीजोंसे में निपट लूँगा। अभी तो हम सब बिखर गये हैं । तुम वहाँ, मणिलाल फोनिक्स में, देवा बधरवायें, बा भीतीहरवा में, हरिलाल कलकत्तेमें और में भटकने में । सम्भव है इस वियोगमें देश-सेवा होगी, इसीमें आत्माकी उन्नति होगी। कुछ भी हो, आगत कष्टोंको प्रसन्नचित्तसे भोगना ही चाहिए।

बापूके आशीर्वाद

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४