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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मौजूद हैं कि इस शुद्ध न्यायके अनुसार चलनेवाली हमारी प्रजाने अनेक भगीरथ कार्य करके दिखाये हैं। यह हुआ पूर्वका अथवा प्राचीन न्याय।[१]

पश्चिममें आजकल ठीक इससे उलटा हो रहा है। कोई यह न सोचे कि वहाँके सब लोगोंको यह आजकलका न्याय पसन्द है । पश्चिममें ऐसे बहुतेरे साधु पुरुष पड़े हैं, जो प्राचीन नीतिको अपनाकर निर्दोष जीवन बिताते हैं । फिर भी पश्चिमके जीवनकी मुख्य हलचलोंमें आजकल दया-मायाको कोई स्थान नहीं है । अगर मालिक अपना सुभीता देखकर वेतनकी नीति ठहराता है, तो वह उचित मानी जाती है। नौकरकी जरूरतोंका विचार करनेकी कोई आवश्यकता ही नहीं मानी जाती। इसी तरह मजदूर भी अपनी इच्छा के अनुसार मालिकके धन्धेकी हालतका विचार किये बिना तनख्वाह माँग सकता है, और वह न्यायोचित माना जाता है। वहाँ न्याय यह है कि सब अपनी-अपनी फिकर कर लें; दूसरा कोई किसीकी फिकर करनेको बँधा हुआ नहीं है। इसी नीति के अनुसार यूरोपमें आजकल यह लड़ाई चल रही है। दुश्मनको किसी भी तरह परास्त करनेमें मर्यादाके पालनकी कोई जरूरत नहीं समझी जाती। पुराने जमानेमें भी ऐसी लड़ाइयाँ तो हुई होंगी । लेकिन उसमें प्रजा शरीक नहीं होती थी। इष्ट है कि हम हिन्दुस्तानमें इस अघोरी न्यायको न अपनायें । जिस दिन अपने बलको समझकर, मालिकोंका विचार किये बिना, मजदूर अपनी माँग पेश करेंगे, उस दिन माना जायेगा कि उन्होंने आधुनिक राक्षसी न्यायको अपनाया है । मालिक मजदूरोंकी माँगोंपर ध्यान न देकर यही कर रहे हैं - उन्होंने अनजाने उसी राक्षसी- न्यायको अपनाया है। मजदूरोंके मुकाबिलेमें मालिकोंका संगठन चींटियोंके खिलाफ हाथियों का दल खड़ा करनेके समान है। अगर मालिक धर्मका विचार करें, तो उन्हें मजदूरोंका विरोध करते हुए काँपना चाहिए। हमारी जानमें पहले हिन्दुस्तानमें लोगोंने ज्ञानपूर्वक इस तरहका न्याय कभी नहीं अपनाया कि मजदूरोंके भूखों मरनेको मालिक अपने लाभका अवसर समझें । न्याय वही हो सकता है, जिससे किसीका कभी कोई नुकसान न हो। हमें दृढ़ आशा है कि गौरवशाली गुजरातकी इस राजधानीके श्रावक अथवा वैष्णवधर्मी मालिक मजदूरोंको झुकाने में या हठपूर्वक उन्हें कम पगार देनेमें कभी अपनी जीत न समझेंगे। हमें विश्वास है कि पश्चिमका यह बवण्डर जितनी तेजीसे उठा है, उतनी ही तेजीसे बैठ भी जायेगा। वह बैठे या न बैठे, हम अपने मजदुरोंको आज पश्चिमकी इस प्रवृत्तिका पाठ पढ़ाना नहीं चाहते । हम तो अपने देशका पुराना न्याय, जैसा हमने उसे जाना और समझा है, पालना चाहते हैं और उनसे पलवाना चाहते हैं, और ऐसा करके उनके अधिकारोंको सिद्ध करनेमें उनकी मदद करना चाहते हैं ।

इस पश्चिमी न्यायके कुछ बुरे नतीजोंके उदाहरणोंपर हम अगली पत्रिकामें विचार करेंगे ।[२]

[ गुजरातीसे ]
एक धर्मयुद्ध
  1. न्यायके विषय में गांधीजीको इस व्याख्याके सम्बन्ध में महादेव देसाई एक धर्मयुद्धकी प्रस्तावना में लिखते हैं: "कई बरस पहले गांधीजीने इंडियन ओपिनियन में रस्किनकी अन्दु दिस लास्ट पुस्तकके आधारपर सर्वोदय नामक एक लेख प्रकाशित किया था। ये विचार अब समयके साथ अधिक दृढ़ बन चुके थे, इसलिए इन पत्रिकाओंमें ज्यादा सरल, सीधी और जोरदार भाषामें प्रकट किये गये हैं ।"
  2. यह और इसके बादकी पत्रिकाएँ मिल मालिकों और मजदूर दोनोंके लिये थीं ।