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अहमदाबादके मिल-मजदूरोंकी हड़ताल

जब यह सब हो रहा था, तभी हमारे मजदूर वहाँ शुद्ध न्यायका पालन कर रहे थे । जब गोरोंकी यह रेल-हड़ताल हुई उस समय २०,००० भारतीय मजदूरोंकी हड़ताल चल रही थी । हम वहाँकी सरकारसे शुद्ध न्यायके लिए लड़ रहे थे। हमारे मजदूरोंका हथियार सत्याग्रह था । उन्हें सरकारसे कोई दुश्मनी न थी, वे सरकारका बुरा नहीं चाहते थे, न सरकारको पदसे हटानेका कोई लोभ उनके सामने था । गोरे मजदूर उनकी इस हड़तालसे लाभ उठाना चाहते थे । पर हमारे मजदूरोंने साफ इनकार कर दिया । उन्होंने कहा : "हमारी लड़ाई सत्याग्रहकी लड़ाई है। हम सरकारको परेशान करनेके लिए नहीं लड़ रहे हैं। इसलिए जबतक आप लड़ते हैं, हम अपनी लड़ाई मुलतवी रखेंगे ।" यों कहकर हमारे मजदूरोंने हड़ताल तोड़ दी।[१] इसे हम शुद्ध न्याय कह सकते हैं । आखिर हमारे मजदूरोंकी जीत हुई, और उससे सरकारका भी नाम हुआ; क्योंकि हमारी माँगोंको मंजूर करनेमें न्याय था । हमारे मजदूरोंने हमदर्दीसे काम लिया; विरोधी के संकटका लाभ नहीं उठाया । लड़ाईके अन्तमें सरकार और प्रजाके बीच शत्रुता बढ़ने के बदले मित्रता बढ़ी, प्रेम बढ़ा और हमारे मानकी वृद्धि हुई । इस प्रकार शुद्ध न्याय के साथ लड़ी जानेवाली लड़ाई दोनों पक्षोंके लिए लाभप्रद साबित होती है।

यदि हम इसी प्रकार न्यायपूर्वक अपनी लड़ाईका संचालन करेंगे, मालिकोंसे शत्रुता नहीं रखेंगे और सदा सचाईपर कायम रहेंगे, तो न सिर्फ हम जीतेंगे, बल्कि मालिकों और मजदूरोंके बीच प्रेमकी वृद्धि होगी।

ऊपर के उदाहरणसे जो दूसरी चीज हमें मिलती है, वह यह है कि सत्याग्रह के लिए दोनों पक्षोंका सत्याग्रही होना जरूरी नहीं है । यदि एक पक्ष भी सत्याग्रही बना रहे, तो अन्तमें विजय सत्याग्रहकी ही होती है । जो शुरूमें मनमें कटुता रखकर लड़ता है, उसकी कटुता भी, जब इस कटुताको प्रतिपक्षीमें कटुता नहीं मिलती, खत्म हो जाती है। जब आदमी हवामें अपनी ताकत आजमाना चाहता है, तो उसका हाथ उतर जाता है । इसी तरह कटुताका जहर तभी बढ़ता है, जब सामनेसे भी उसे जहर मिलता है।

अतएव अब हम इस बातको भली-भाँति समझ सकते हैं कि अगर हम मजबूतीसे लड़ेंगे और हिम्मत न हारेंगे, तो अन्तमें जीत हमारी ही होगी।

अगली पत्रिकामें हम कुछ सत्याग्रहियोंके दृष्टान्तोंका विचार करेंगे।

[ गुजरातीसे ]
एक धर्मयुद्ध
 
  1. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ३२६-२७