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अहमदाबादके मिल मजदूरोंकी हड़ताल

लायक नहीं हो। अगर तुम इस लड़ाईमें शामिल न भी हुए, तो कोई तुम्हारी तरफ अँगुली नहीं उठा सकेगा।” जवाब में इरबतसिंहने कहा: "जब आप सब अपने सम्मान के लिए इतना दुःख उठा रहे हैं, तब अकेला में ही बाहर रहकर क्या करूँ ? मैं इस जेलखाने में मर भी जाऊँ, तो क्या बुरा है ?'[१] और सचमुच हरबतसिंह उसी जेलखाने में मरा और अमर हो गया । वह जेलके बाहर मरता तो कोई उसका नाम भी न लेता । चूँकि वह जेलके अन्दर मरा, इसलिए देशवासियोंने जेलवालोंसे उसकी लाश माँगी और सैकड़ों हिन्दुस्तानी उसकी लाशके पीछे श्मशान गये ।

हरबतसिंहकी तरह ही ट्रान्सवालके व्यापारी अहमद मुहम्मद काछलियाका नाम भी स्मरणीय है । ईश्वरकी दयासे वे अभी जीवित हैं; और हिन्दुस्तानियोंको संगठित रखकर उनकी प्रतिष्ठाको बनाये हुए हैं। वे दक्षिण आफ्रिकामें रहते हैं । जिस लड़ाईमें हरबत सिंहने अपने प्राण दिये, उसीमें सेठ अहमद मुहम्मद काछलिया कई बार जेल गये । अपना सारा व्यापार उन्होंने नष्ट होने दिया । आजकल वे गरीबीसे रहते हैं, फिर भी वहाँ सब कोई उनका मान करते हैं । अनेक संकट सहकर भी वे अपनी टेकपर डटे रहे हैं।

जिस प्रकार एक बूढ़ा मजदूर और अधेड़ उम्र के एक प्रसिद्ध व्यापारी अपनी टेकके लिए जूझे और अनेक कष्टोंमें से गुजरे, उसी प्रकार सत्रह वर्षकी एक नौजवान कुमारिकाने भी सब संकट सहे । उसका नाम वलिअम्मा[२] था । वह भी इस लड़ाईमें कौमकी टेककी खातिर जेल गई थी । जेल जाते समय वह बीमार थी। उसे बुखार आता था । जेलमें बुखार बढ़ गया । जेलरने उससे जेल छोड़ देने को कहा । वलिअम्माने जेल छोड़ने से इनकार किया और दृढ़तासे जेलकी मीयाद पूरी की । जेलसे रिहा होनेके चौथे या पाँचवें दिन वह मर गई ।

इन तीनोंका सत्याग्रह शुद्ध सत्याग्रह था। तीनोंने दुःख सहे, तीनों जेल गये और अन्त तक अपनी टेकपर कायम रहे । हमारे सामने तो ऐसा कोई संकट नहीं है। हमें अपनी प्रतिज्ञाको निबाहनेके लिए अधिकसे-अधिक जो सहन करना है, वह इतना ही है कि हम अपने मौज-शौकको कुछ कम करें और अबतक जो तनख्वाह हमें मिलती थी उसके बिना जैसे-तैसे अपना काम चलायें। यह कोई बहुत बड़ी बात नहीं है । जो काम इस जमाने में हमारे ही भाई-बहिन कर सके हैं, वैसा ही कुछ करना हमारे लिए कठिन न होना चाहिए ।

इसका कुछ अधिक विचार हम अगले अंकमें करेंगे ।

[ गुजरातीसे ]
एक धर्मयुद्ध
 
  1. देखिए खण्ड ९, पृष्ठ ४१ ।
  2. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ४७७-७९ ।
१४-१५