और नीरस खुराकपर रहे। आज उनके पास अपनी कहनेको एक फूटी कौड़ी भी नहीं है। सूरत जिलेके दादामियाँ काजी भी ऐसे ही लोगोंमें थे । सत्रह साल से कम उनके नारायण स्वामी[१]और नागप्पन[२]नामक दो मद्रासी बालकोंने इसी लड़ाईमें अपने प्राण होमे । उन्होंने धूप सहन की, लेकिन पीछे न हटे ।
हमें याद रखना चाहिए कि जिन स्त्रियोंने कभी मजदूरी नहीं की थी, वे इस लड़ाई में फेरीवाली बनकर घूमीं और जेलमें उन्होंने धोबिनका काम किया ।
इन उदाहरणोंका विचार करते हुए ऐसा कौन मजदूर हममें होगा, जो अपनी टेकको निबाहनेके लिए मामूली तकलीफें उठानेको तैयार न हो ?
हम देखते हैं कि मालिकोंने जो पर्चे निकाले हैं, उनमें गुस्सेमें आकर कुछ ऐसी बातें लिखी हैं, जो अशोभनीय हैं; कुछ बातोंको जानमें या अनजानमें बढ़ाकर लिखा है, और कुछको तोड़-मरोड़कर लिखा गया है। हम गुस्सेका जवाब गुस्सेसे तो दे ही नहीं सकते। उनमें दी गई गलत बातोंको सुधारना भी ठीक नहीं मालूम होता । उनके सम्बन्धमें सिर्फ यह कहना ही काफी होगा कि न तो हम उनमें दी गई बातों के चक्करमें पड़ें, और न झल्लायें। मजदूरोंके सलाहकारोंके खिलाफ जो शिकायतें की गई हैं, वे अगर सच होंगी, तो यहाँ उनका जवाब देनेसे वे झूठ साबित न हो सकेंगी । हम जानते हैं कि वे अनुचित हैं । यहाँ जवाब देकर उनको अनुचित सिद्ध करनेकी अपेक्षा हम यह ठीक समझते हैं कि हमारा भावी व्यवहार इसको सिद्ध करे ।
अगली पत्रिकामें इस सवालपर कुछ और विचार करेंगे ।
एक धर्मयुद्ध
१५५. पत्र : मिली ग्रॅहम पोलकको
साबरमती
मार्च ६, १९१८
मैं यहाँ खेड़ा-संघर्ष और एक बड़ी हड़ताल चला रहा हूँ । इस प्रकार अब मेरा सत्याग्रह जीवन के सभी क्षेत्रोंमें खुलकर खेलने लगा है। इन दो संघर्षोंके कारण मैं अहमदाबाद में रुका पड़ा हूँ । इनसे सम्बन्धित कुछ कागजात में हेनरीको सीधे भेज रहा हूँ। उनके जीवनकी प्रगतिको मैं ध्यानसे देखता रहा हूँ । प्रगतिकी दिशामें हेनरी चाहे जितने बढ़ें, मुझे आश्चर्य नहीं होगा । अगर वे थोड़े भी ढीले पड़े तो मुझे अफसोस जरूर होगा । सर विलियम वेडरबर्न[४]के उठ जानेसे उन्हें कमी तो महसूस होगी, किन्तु वे अपने समयसे