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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

माना जाता है, तब ७५ प्रतिशत देनेवाला कैसे टिक सकता है ? फिर रुपयेपर चार आनेका ब्याज देनेवालेकी तो बात ही क्या ? ऐसे आदमीको सोलह रुपयेपर महीनेमें चार रुपये देने पड़ते हैं, और चार महीनों में तो मूलधनके ही बराबर रकम दे देनी पड़ती है । यह ३०० प्रतिशत ब्याज हुआ। ऐसे लोग हमेशा कर्ज में डूबे रहते हैं; वे उससे कभी उबर नहीं सकते । ब्याजका यह भार पैगम्बर मुहम्मद साहबने बुरी तरह महसूस किया था, यही वजह है कि कुरान शरीफमें हमें सूदके बारेमें सख्त आयतें पढ़नेको मिलती हैं। मालूम होता है कि उन्हीं कारणोंसे हिन्दू शास्त्रों में 'दामदुप्पट'[१] के नियमको स्थान मिला होगा। अगर इस लड़ाईके सिलसिले में हिन्दू और मुसलमान सभी मजदूर इतनी ऊँची दरका ब्याज न देनेकी प्रतिज्ञा कर लें, तो उनके सिरका बहुत बड़ा बोझ उतर जाये । बारह फीसदीसे ज्यादा ब्याजपर रकम किसीको नहीं लेनी चाहिए। कोई पूछेगा कि बात तो ठीक है, लेकिन जो रकम ब्याजपर ली जा चुकी है, वह कैसे लौटाई जाये ? वह तो अब जीवनके साथ जुड़ी हुई चीज है। इसका सबसे अच्छा इलाज तो यही है कि मजदूरोंके बीच ऐसी समितियाँ खड़ी की जायें, जिनसे उन्हें आपस में पैसेकी भी मदद मिल सके। कुछ मजदूरों की स्थिति ऐसी भी है कि वे चाहें तो ब्याज के बोझ तले दबे हुए अपने भाइयोंको उससे छुड़ा सकते हैं। बाहरवाले इसमें ज्यादा दखल नहीं दे सकते। जिसे हमपर पूरा विश्वास है, वही हमारी मदद कर सकता है । कैसे भी क्यों न हो, एक बार साहसके साथ मजदूरोंको इस महादुःखसे छूटना चाहिए। ब्याजकी ये भारी-भारी दरें गरीबीका एक बहुत बड़ा कारण है । दूसरे कारण शायद इतने बड़े न हों। उनका विचार आगे करेंगे ।

[ गुजरातीसे ]
एक धर्मयुद्ध

१५९. पत्र : मनसुखलाल मेहताको

मार्च ७, १९१८

श्री मनसुखलाल,

तुम्हारी आलोचनासे मुझे दुःख नहीं होता। काठियावाड़का प्रश्न मुझे तुच्छ नहीं लगता। वह मुझे तो इतना बड़ा लगता है कि अभी वह मेरी शक्तिके बाहर है। मैंनें उसपर विचार न किया हो, ऐसी बात भी नहीं है। मैंने इस प्रश्नको विचारपूर्वक ही छोड़ा है। इसमें मेरी कमजोरी हो सकती है। ऐसा हो, तो मुझे बल देना चाहिए। लेकिन तुम्हारे बल देनेसे वह मुझमें आ जायेगा, ऐसा नहीं है । जो भीतरकी आग चाहिए, सो नहीं है ।

[ गुजरातीसे ]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 
  1. ब्याज मूलधनके दुगनेसे कभी ज्यादा न हो - यह नियम ।