१६१. पत्र : एच० एस० एल० पोलकको
साबरमती
मार्च ८, १९१८
मैं तुमको पत्र लिखनेमें अधिकसे-अधिक तत्पर रहा हूँ । इसलिए मेरी समझमें तो मेरे पत्र कहीं और पहुँच गये होंगे। पहला पत्र मिलनेके तुरन्त बाद मुझे तुम्हारा दूसरा पत्र मिला। मैंने मिलीको लिखकर तुम्हारे पहले पत्रका उत्तर दे दिया है।
तुम अब 'इंडिया'का सम्पादन कर रहे हो । आशा है कि तुम मुझे उसकी प्रतियाँ नियमित रूपसे भेजते रहोगे । मैंने 'हिबर्ट्स जरनल ' पढ़ लिया है। मलेरियाने मेरा पीछा छोड़ दिया है और अब में बहुत अच्छा हूँ ।
- हसन इमाम तुमको कुछ भी नहीं भेज रहे हैं; में उनसे इस बारेमें वात करूँगा।
मैं श्री देसाईसे[१] कह रहा हूँ कि वे तुमको मेरी गतिविधियोंके बारेमें सूचित करते रहें। उन्होंने मेरे कामके लिए अपनेको समर्पित कर दिया है। वे एक बड़े सुयोग्य सहायक हैं, और उनकी महात्त्वाकांक्षा तुम्हारे स्थानकी पूर्ति करना है । है तो टेढ़ी खीर, लेकिन वे पूरा प्रयत्न कर रहे हैं।
- सस्नेह,
तुम्हारा,
भाई
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र ( जी० एन० ३७९०) की फोटो नकलसे ।
१६२. पत्र : जमनालाल बजाजको
साबरमतीमहा
कृष्ण १३ [ मार्च १०, १९१८]
आपका खतका उत्तर देने में देरी हुई है । में यहाँ दो बड़े कार्यमें गीरफ्तार हो गया हूं। मुझे क्षमा कीजीएगा। पुस्तकालयके लीये मेरा नाम रखना उचित हो तो वैसा कीजीये |
मोहनदास गांधीका वन्देमातरम्
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल हिन्दी पत्र ( जी० एन० २८३६) की फोटो नकलसे ।