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१६५. पत्र : मंगलदास पारेखको[१]

[ अहमदाबाद
मार्च १२, १९१८ के पूर्व ]

कई मित्र मेरे पास आये और उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मजदूरों और मिल मालिकोंके बीच झगड़ा समाप्त करानेके लिए मुझे कुछ-न-कुछ करना चाहिए। यदि मेरे वश में होता तो मैं अपनी जानकी बाजी लगाकर भी झगड़ा बन्द करा देता । परन्तु वह सम्भव नहीं । उसे बन्द कराना तो मालिकोंके हाथमें है। मजदूरोंने ३५ प्रतिशत वृद्धिकी मांग की है, केवल इसीलिए उतना न देना एक प्रतिष्ठाका प्रश्न क्यों बना लिया जाये ? यह बात बिलकुल तय क्यों मान ली जाती है कि मैं जो भी चाहूँ उसे स्वीकार करनेके लिए मजदूरोंको राजी कर सकता हूँ? मेरा दावा है कि मैंने जो तरीके अपनाये हैं उनके कारण ही मजदूर मेरी बात मानते हैं। क्या अब में दूसरे ऐसे तरीके अपनाऊँ कि जो उनको अपनी प्रतिज्ञा भंग करनेपर विवश कर दें ? यदि में ऐसा करूँगा तो वे मेरा सिर धड़से अलग क्यों न कर देंगे ? मैंने सुना है कि मिलोंके मालिक मुझपर दोषारोपण करते हैं। मुझे उसकी चिन्ता नहीं । एक दिन आयेगा जब वे खुद ही स्वीकार करेंगे कि मैं गलतीपर नहीं था। मैं किसीके भी प्रति हृदयमें कटुता नहीं रखूंगा, इसलिए उनके और मेरे बीच किसी भी प्रकारकी कटुता की गुंजाइश नहीं। कटुताके भावको भी जब-तब उकसाते रहना पड़ता है, परन्तु में वैसा नहीं करूँगा ! पर आप इसमें हाथ क्यों नहीं बँटाते ? इस इतने बड़े संघर्षको अलग से केवल खड़े-खड़े देखना आपको शोभा नहीं देता ।

[ गुजरातीसे ]
एक धर्मयुद्ध

१६६. अहमदाबाद के मिल मजदूरोंकी हड़ताल

[ मार्च १२, १९१८[२]

पत्रिका-१२

आजसे नया अध्याय शुरू होता है । मालिकोंने तालाबन्दी खत्म करनेका निश्चय किया है और जो २० प्रतिशत इजाफा लेकर कामपर जानेको तैयार हैं, उन्हें लेनेकी इच्छा प्रकट की है । इसलिए आजसे मालिकोंके तालाबन्दीकी जगह मजदुरोंकी हड़ताल शुरू होती है । मालिकोंके इस निश्चयकी आम सूचना आप सबने देखी है । उसमें वे

 
  1. अहमदाबादके उद्योगपति; आपने अहमदाबादमें आश्रमकी स्थापनाके समय गांधीजीकी आर्थिक सहायता की थी ।
  2. इस दिन तालाबन्दी समाप्त कर दी गई थी।]