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प्रवचन : आश्रम में प्रार्थनाके बाद

उनकी धारणा यह थी कि उन्होंने बीस दिन प्रतिज्ञाका पालन किया, इसलिए भगवान् उनकी मदद जरूर करेगा। किन्तु भगवान्ने इतने अर्सेमें मदद नहीं की और उनकी ज्यादा परीक्षा ली, इसलिए उनकी आस्था कमजोर पड़ गई। उन्हें यह महसूस हुआ; 'हमने इतने दिनोंतक इस एक व्यक्तिके कहनेपर भरोसा रखकर दुःख उठाया, परन्तु हमें कुछ न मिला। हमने इसका कहना न माना होता और दंगे-फसाद किये होते, तो हमें पैंतीस फीसदी तो क्या, उससे भी ज्यादा थोड़े ही समयमें मिल जाता । यह उनके मनका विश्लेषण है। मैं इस स्थितिको कदापि सहन नहीं कर सकता। मेरे सामने ली हुई प्रतिज्ञा इस तरह आसानीसे तोड़ दी जाये और ईश्वरके प्रति श्रद्धा कम हो जाये, यह तो धर्मका लोप हुआ ही कहा जायेगा । और इस तरह जिस काम में में शामिल होऊँ, उसमें धर्मका लोप होता देखूँ, तो मैं भी जी ही नहीं सकता। मुझे मजदूरोंको यह समझाना चाहिए कि प्रतिज्ञा लेनेका क्या अर्थ है। इसके लिए मैं क्या कर सकता हूँ, यह भी मुझे उन्हें बताना चाहिए। यदि मैं उन्हें यह न बताऊँ, तो मैं कायर कहलाऊँगा । यदि कोई व्यक्ति एक ब्यों [व्याम ] कूद सकनेका दावा करे और एक बित्ता भी न कूद सके तो यह उसकी कायरता ही होगी। तब मैंने इन दस हजार लोगोंको पतनसे बचाने के लिए यह कदम उठाया । इसीलिए मैंने यह प्रतिज्ञा ली और उसका बिजलीका-सा असर हुआ। मैंने यह सोचा ही नहीं था । वहाँ हजारों आदमी थे। उनकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा बहने लगी। उन्हें अपनी आत्माका भान हुआ, उनमें चैतन्य आया और उन्हें अपनी प्रतिज्ञाका पालन करनेका बल मिला । मुझे तुरन्त यह विश्वास हो गया कि भारतसे धर्मका लोप नहीं हुआ है। यहाँके लोग आत्माको पहचान सकते हैं। यह बात तिलक महाराज तथा मालवीयजीकी समझमें आ जाये, तो भारत में जबरदस्त काम किया जा सकता है ।

मैं इस समय आनन्द-विभोर हो रहा हूँ। इससे पहले जब मैंने ऐसी प्रतिज्ञा ली थी, तब मेरे मनमें ऐसी शान्ति नहीं थी । शरीरकी जरूरतें भी मुझे महसूस होती थीं। इस बार मुझे शरीरकी जरूरतें मालूम ही नहीं होतीं। मेरे मनमें पूरी शान्ति है। ऐसा जीमें आता है कि अपनी आत्मा आप लोगोंके सामने उँडेल दूं। लेकिन मैं आनन्दसे विह्वल भी हो गया हूँ ।

मेरी प्रतिज्ञा मजदूरोंसे उनका प्रण पलवाने के लिए है, लोगोंको प्रतिज्ञाका मूल्य समझाने के लिए है। देशमें लोग चाहे जब प्रतिज्ञा लें और चाहे जब उसे तोड़ें, यह देशकी हीन अवस्थाका सूचक है। फिर यदि दस हजार मजदूर अपनी प्रतिज्ञा तोड़ देते तो इससे देशकी अधोगति ही हो जाती। मजदूरोंका सवाल तो फिर कभी उठाया ही नहीं जा सकता । जहाँ-तहाँ यह उदाहरण दिया जाता कि दस हजार मजदूरोंने बीस दिन तक भारी दुःख उठाया था और गांधी जैसा व्यक्ति उनका नेता था, फिर भी वे न जीते। इसलिए मुझे यह सोचना पड़ा कि मजदूर अपनी बातपर किस तरह दृढ़ रह सकते हैं और इस कार्यको मैं अपने-आपको कष्ट दिये बिना कैसे कर सकता हूँ ? प्रतिज्ञाका पालन करनेके लिए ऐसे कष्ट भी उठाने पड़ते हैं, यह उदाहरण उनके सामने रखना जरूरी मालूम हुआ । बस मैंने यह प्रतिज्ञा ली । मैं समझता हूँ कि मेरी प्रतिज्ञा दोषयुक्त है।यह सम्भव है कि इस प्रतिज्ञाके कारण मिल-मालिक मुझपर दया करके मजदूरोंको ३५