इसलिए थोड़े में हमारे समझौतेका सार यह है कि पहले दिन हमें अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार ३५ प्रतिशत ज्यादा मिले, दूसरे दिन मालिकोंकी प्रतिज्ञाके अनुसार २० प्रतिशत मिले। और तीसरे दिनसे पंचका फैसला होने तक २७|| प्रतिशत मिले। बादमें पंच ३५ प्रतिशतका फैसला दें, तो मालिक ७।। प्रतिशत हमें और दें और २७|| से कमका फैसला दें तो उतनी रकम हम मालिकोंको लौटा दें ।
आपके लिए मैं जो कुछ लाया हूँ, वह हमारी प्रतिज्ञाके शब्दोंकी पूर्तिके लिए काफी होगा, आत्माके लिए नहीं । आत्मावाले अभी हम नहीं हैं, इसलिए शब्दके पालनसे ही हमें सन्तोष करना होगा ।
हम आपस में मिलकर विचार-विमर्श करते रहे हैं; अब हमसे बिना मिले आप कोई प्रतिज्ञा न कर बैठना । जिसे अनुभव नहीं, जिसने कुछ किया-धरा नहीं, वह प्रतिज्ञा- का भी अधिकारी नहीं । बीस वर्षोंके अनुभवके बाद में इस परिणामपर पहुँचा हूँ कि प्रतिज्ञा लेनेका मुझे अधिकार है । मैंने देखा है कि आप अभी प्रतिज्ञा लेनेके लायक नहीं हुए हैं । अतएव अपने बुजुर्गोंसे पूछे बिना प्रतिज्ञा न लेना । प्रतिज्ञा लेनी ही पड़े, तो हमसे आकर मिलना । जब ऐसा समय आयेगा, तो विश्वास रखिए कि आजकी तरह तब भी हम आपके लिए मरने को तैयार रहेंगे। लेकिन याद रखिए कि जो प्रतिज्ञा आप हमारे सामने लेंगे, उसीके लिए हम आपकी मदद कर सकेंगे। भूलसे की जानेवाली प्रतिज्ञा तोड़ी भी जा सकती है। आपको तो अभी यह भी सीखना है कि प्रतिज्ञा कब और किस तरह लेनी चाहिए।[१]
एक धर्मयुद्ध
१८३. भाषण : अहमदाबाद के मिल मजदूरोंकी सभा में[२]
[ मार्च १८, १९१८]
मुझे लगता है कि जैसे-जैसे दिन बीतते जायेंगे, वैसे-वैसे अहमदाबाद तो ठीक, सारा हिन्दुस्तान इन २२ दिनोंकी लड़ाईके लिए गर्वका अनुभव करेगा, और हिन्दुस्तानवाले यह मानेंगे कि जहाँ इस तरहकी लड़ाई चल सकती है, वहाँ आशाकी बहुत-कुछ गुंजाइश है । इस लड़ाई में वैर भावको कोई स्थान नहीं रहा है। मैंने ऐसी लड़ाईका अभीतक अनुभव नहीं किया था। वैसे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रीतिसे कई लड़ाइयोंका अनुभव मुझे है, लेकिन उनमें से एक भी ऐसी नहीं याद पड़ती कि जिसमें दुश्मनी या कड़वाहट इतनी कम रही हो । आशा है, जैसी शान्ति आपने लड़ाईके दिनोंमें रखी थी, वैसी आप हमेशा बनाये रखेंगे ।