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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

कहने लगा कि इस संसारमें ईश्वर नामकी ऐसी कोई चीज नहीं जो उनकी मदद करे, और ये व्रत वगैरह तो कमजोरोंकी कमजोरीको छिपानेके लिए अख्तियार की गई तरकीबें हैं। मैं हमेशा देखता था कि लोग पाँचसे लेकर दस हजार तक की तादाद में रोज उत्साह और उमंगके साथ इकट्ठे होते थे । उनके चेहरोंसे उनकी दृढ़ता टपकती थी । लेकिन इसके बदले एक दिन मैंने सिर्फ दो हजार आदमियोंको एकत्र देखा, जिनके चेहरोंपर निराशा छाई हुई थी। इसी अर्से में हमने यह भी सुना कि किसी एक चालमें रहनेवाले मिल मजदूरोंने सभामें आनेसे इनकार किया है, और वे बीस प्रतिशतका इजाफा मंजूर करके कामपर जाने की तैयारीमें हैं। उन्होंने हमें ताने भी दिये (और मैं समझता हूँ कि उनका कहना वाजिब था) कि हमारे पास मोटरें हैं, खाने-पीनेका पूरा प्रबन्ध है, इसलिए सभामें हाजिर रहने और मौतके मुकाबलेमें भी दृढ़ रहनेकी सलाह देना हमारे लिए बड़ा आसान है । ऐसी दशामें मुझे क्या करना चाहिए? मुझे उनकी आपत्ति उचित मालूम हुई । ईश्वरपर मुझे उतना ही विश्वास है, जितना इस बातपर कि मैं यह पत्र लिख रहा हूँ। और मैं मानता हूँ कि किसी भी दशामें वचनका पालन करना आवश्यक है । मैं जानता था कि हमारे सामने खड़े हुए लोग परमात्मासे डरते हैं, परन्तु तालबन्दी और हड़तालके कई दिनों तक चलनेके कारण उनपर असह्य बोझ आ पड़ा है। मैं हिन्दुस्तानमें बहुत घूमा हूँ। अपनी इन यात्राओंमें मैंने सैकड़ों आदमी ऐसे भी देखें हैं, जो पलमें प्रतिज्ञा करते हैं और पलमें उसे तोड़ते हैं। मैं यह भी जानता था कि हममें जो लोग सबसे अच्छे माने जाते हैं, ईश्वर और आत्मबलके सम्बन्ध में उनकी श्रद्धा भी ढीली और अस्पष्ट ही होती है । मैंने देखा कि मेरे लिए यह एक पवित्र अवसर है। मुझे अपनी श्रद्धा कसौटीपर कसी हुई प्रतीत हुई। फलतः मैं बिना किसी संकोचके उठ खड़ा हुआ और मैंने कहा कि जो प्रतिज्ञा शपथपूर्वक ली गई है, मिल- मजदूरों द्वारा उसका भंग होना मेरे लिए असह्य है । इसलिए मैंने प्रतिज्ञा की कि जब-तक मजदूरोंको ३५ प्रतिशत इजाफा नहीं मिलेगा अथवा जबतक वे हारकर घुटने नहीं टेक देंगे, तबतक में अन्न नहीं खाऊँगा । इस समय तक सभामें पिछली सभाओंका सा उत्साह न था, उदासी थी । लेकिन अब उसमें जैसे जादूसे एकाएक उत्साह आ गया । एक-एक आदमीके गालपर टप टप आँसू टपकने लगे, और वे एकके बाद एक उठकर यह ऐलान करने लगे कि जबतक उनकी माँग मंजूर नहीं होती, वे कभी भी मिलमें काम करने नहीं जायेंगे, और जो लोग इस सभामें हाजिर नहीं हैं, उनसे मिलकर उन्हें भी अपने पक्षमें ले आयेंगे । सत्य और प्रेमके प्रभावको प्रत्यक्ष देखनेका यह एक अमूल्य अवसर था । हरएक यह महसूस करने लगा कि परमेश्वरकी पालक शक्ति जितनी प्राचीन कालमें हमारे आसपास रहती थी, उतनी ही आज भी है । इस प्रतिज्ञाका कोई पछतावा मुझे नहीं। बल्कि में तो श्रद्धापूर्वक यह मानता हूँ कि अगर मैंने इससे कुछ कम किया होता तो मैंने अपने-आपको लोगोंके उस विश्वासके अयोग्य सिद्ध किया होता जो उन्होंने मुझको दिया था । प्रतिज्ञा करनेसे पहले भी मैं जानता था कि उसमें कुछ बड़ी त्रुटियाँ रह गई हैं। मिल मालिकोंके निश्चयपर किसी प्रकारका असर डालनेके लिए इस प्रकार की प्रतिज्ञा करना तो उनके साथ एक कायरतापूर्ण अन्याय करना है । मैं जानता था।