१९४. पत्र : जे० बी० कृपलानीको[१]
नडियाद
मार्च २७, १९१८
मैं तुम्हें इससे पहले पत्र नहीं लिख सका, इसके लिए क्षमा करना। आशा है गिरधारीने मेरा सन्देश तुम तक पहुँचा दिया होगा । मैं तुमको ऐसा पत्र लिखना चाहता था कि जिसे पढ़कर तुमको शान्ति और आनन्द मिले। इसीलिए देर हुई। अब भी ऐसा पत्र लिख सकूँगा या नहीं, इसके बारेमें शंका है। लेकिन अब मैं तुमको लिखने में ज्यादा देर नहीं कर सकता । तुम्हारे पत्र में व्यक्त की गई मार्मिक वेदना तो मेरे सामने स्पष्ट है[२]; किन्तु मृत्यु हमारे प्रियसे प्रियजनोंको एकाएक छीन ले, जैसा तुम्हारे भाईके मामलेमें हुआ है, तो इससे हमें पंगु क्यों बन जाना चाहिए ? क्या मृत्यु केवल एक परिवर्तन और विस्मरण मात्र नहीं है ? वह एकाएक आ जाये, तो क्या उसके स्वरूपमें कोई फर्क पड़ जाता है ? तुमको तो एक दुर्लभ अवसर मिला है। तुम्हारी श्रद्धा और तुम्हारे तत्त्वज्ञानकी परीक्षा हो रही है। तुम प्रामाणिक मार्गसे कुटुम्बके दो आदमियोंका भरण-पोषण करो, तो इसमें भी सच्ची राष्ट्र-सेवा है। कुटुम्बका भरण-पोषण करनेवाले सभी लोग अगर तथाकथित राष्ट्र सेवक बन जायें, तो राष्ट्रका क्या होगा ? यही तुम्हारी परीक्षाका समय है । और मैं जानता हूँ कि उसमें तुम कच्चे साबित नहीं होगे। तुम्हारे तमाम मित्रोंकी परीक्षाका भी यही समय है । तुम क्या करना चाहते हो, सो बता दो । अगर आ सको, तो मुझसे मिल जाओ। तुम्हारी योजनाओंपर हम चर्चा कर लेंगे । यह तो तुम जानते ही हो कि मुझसे जो मदद हो सकती है, वह में करनेको तैयार हूँ ।
हार्दिक स्नेह और सहानुभूति,
सदा तुम्हारा,
बापूजी
- महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे ।
- सौजन्य : नारायण देसाई ।