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१९५. वक्तव्य : खेड़ाकी परिस्थितिके बारेमें समाचारपत्रोंको

नडियाद
मार्च २८, १९१८

सभी मानते हैं कि खेड़ा जिलेमें इस वर्ष १९१७ -१८ की फसल काफी खराब हो गई है। मालगुजारी कानूनके मुताबिक चार आनेसे कम फसल रह जानेपर किसानोंको हक हो जाता है कि उस सालकी लगान वसूली मुलतवी कर दी जाये । और अगर फसल छः आनेसे कम हुई हो तो आधे लगानकी वसूली मुलतवी कर दी जाये । जहाँतक मुझे जानकारी है, सरकारने लगानकी वसूली लगभग ६०० गाँवोंमें से केवल एक गाँवमें पूरी और १०३ से कुछ अधिक गाँवोंमें आधी मुलतवी करनेकी कृपा की है। रैयतका कहना है कि वास्तविक स्थितिको देखते हुए यह बहुत कम है । सरकार कहती है कि ज्यादातर गाँवोंमें फसल छ: आनेसे ऊपर रही है। इसलिए अब सवाल सिर्फ यह रह जाता है कि फसल चार आने-भर हुई है या छः आने-भर या उससे भी ज्यादा। सबसे पहली चीज तो यह कि सरकारने जो निर्धारण किया है, वह वास्तवमें गाँवोंके मुखियोंकी मदद से तलातियोंने किया है। उनके दिये हुए आंकड़ोंकी जाँच कराना कभी जरूरी नहीं माना जाता, क्योंकि फसल खराब होनेपर ही सरकारके निर्धारणके बारेमें कोई शंका उठानेका सवाल उठता है । तलाती लोगोंका पूरा वर्ग ही चापलूस, बेईमान और अत्याचारी होता है, और जो जी-हुजूरी करते हैं. गाँव के मुखिया भी विशेषकर वे ही चुने जाते हैं । तलातियोंका बस एक ही उद्देश्य होता है-जितनी जल्दी हो सके पूरा लगान वसूल किया जाये। हमें कभी-कभी ऐसे मेहनती तलातियोंके किस्से पढ़नेको मिलते हैं जिनको पूरी वसूली करनेके उपहार स्वरूप पगड़ियाँ भेंट की गई हैं। मैंने तलातियोंके वर्गके लिए जिन विशेषणोंका प्रयोग किया है उनको निरपवादरूपमें उनपर लागू करनेका मेरा कोई मंशा नहीं। मैं तो एक तथ्य भर सामने रख रहा हूँ । वे तलाती पैदा तो नहीं होते, बनते ही हैं और लगान वसूल करनेवालोंको अपने अन्दर एक हृदयहीनता पैदा करनी ही पड़ती है, उसके बिना वे अपने प्रभुओंको खुश रखने लायक काम नहीं कर सकते । संसारभरमें यही देखनेमें आता है । लगान वसूलीका काम आजकल मुख्यतः तलाती ही करते हैं। उनके बारेमें रैयत द्वारा कही जानेवाली बातोंका ब्यौरा पेश करना मुमकिन नहीं । तलातियोंके बारेमें इतना सब लिखनेका मेरा प्रयोजन यही दिखलाना है कि सरकारके फसल कूतनेका आधार दोषपूर्ण है और वह शायद जान-बूझकर रैयतके खिलाफ कूती जाती है। तलातियोंके निर्धारण के खिलाफ रैयतके गरीब-अमीर सभी लोगों द्वारा दिये गये सबूत मौजूद है; इनमें से कुछ बड़े-बड़े ओहदोंपर हैं, कुछके पास काफी दौलत भी है और उन्हें गलत बात कहनेपर अपनी प्रतिष्ठा हानिका भय है । बढ़ा-चढ़ाकर बात कहने में इन्हें कुछ मिलना नहीं है, सिवाय तलातियों और शायद उच्च अधिकारियोंके क्रोधके । मैं यहाँ स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि इस आन्दोलनका मंशा सरकार या व्यक्तिगत रूपसे किसी अधिकारीको बदनाम करनेका नहीं है ।

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