१९६. भाषण : हिन्दी साहित्य सम्मेलनमें[१]
[ इन्दौर
मार्च २९, १९१८]
हमारे पूजनीय और स्वार्थत्यागी नेता पण्डित मदनमोहन मालवीय नहीं आ सके । मैंने उनसे प्रार्थना की थी कि जहाँतक बने सम्मेलनमें उपस्थित रहियेगा । उन्होंने वचन दिया था कि वे जरूर आयेंगे । पण्डितजी सम्मेलनमें तो उपस्थित नहीं हुए, पर उन्होंने एक पत्र भेज दिया है । में उम्मीद करता था कि यदि पंडितजी नहीं आयेंगे, तो उनका पत्र अवश्य आयेगा, और उसे में आप लोगोंके सामने उपस्थित कर सकूँगा । यह पत्र मुझे आज मिला है। मैंने स्वागतकारिणी सभाको हिन्दीके विषयमें विद्वानोंसे दो प्रश्नोंपर सम्मति लेनेके लिए कहा था, उन्हींका उत्तर पंडितजीने अपने पत्र में दिया है।[२]
[ मालवीयजीका पत्र पढ़कर गांधीजीने इस प्रकार कहा : ]
भाइयो और बहनो,
मैं दिलगीर हूँ कि जो व्याख्यान सम्मेलनमें देनेका मेरा इरादा था, वह आपके सामने नहीं रख सका हूँ। मैं बड़ी झंझटोंमें पड़ा हूँ। मेरी इस समय बड़ी दुर्दशा है । इससे मैं काम नहीं कर सका। पर मैंने वादा किया था कि मैं आऊँगा, और आ गया; किन्तु जो चीज सामने रखनेका इरादा था, नहीं रख सका ।
यह भाषाका विषय बड़ा भारी और बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। यदि सब नेता सब काम छोड़कर केवल इसी विषयपर लगे रहें, तो बस है । यदि हम लोग भाषाके प्रश्नको गौण समझें या इधरसे मन हटा लेंगे, तो इस समय लोगोंमें जो प्रवृत्ति चल रही है, लोगोंके हृदयोंमें जो भाव उत्पन्न हो रहा है, वह निष्फल हो जायेगा ।
भाषा माताके समान है। मातापर हमारा जो प्रेम होना चाहिए, वह हम लोगोंमें नहीं है। वास्तवमें मुझे तो ऐसे सम्मेलनोंसे प्रेम नहीं है। तीन दिनका जलसा होगा । तीन दिन कह सुनकर हमें [ आगे ] जो करना चाहिए, उसे हम भूल जायेंगे । सभापति के भाषण में तेज नहीं है, जिस वस्तुकी आवश्यकता है, वह वस्तु उसमें नहीं है । इससे बड़ी कंगालीकी मैं कल्पना नहीं कर सकता । हमपर और हमारी प्रजाके ऊपर एक बड़ा आक्षेप यह है कि हमारी भाषामें तेज नहीं है। जिनमें विज्ञान नहीं है, उनमें तेज नहीं है । जब हममें तेज आयेगा, तभी हमारी प्रजामें और हमारी भाषामें तेज आयेगा । विदेशी भाषा द्वारा आप जो स्वातन्त्र्य चाहते हैं, वह नहीं मिल सकता; क्योंकि उसमें हम योग्य