माधुर्य में देखता हूँ, वह न लखनऊके मुसलमान भाइयोंकी बोलीमें और न प्रयागके पंडितों की बोलीमें पाया जाता है। भाषा वही श्रेष्ठ है, जिसको जनसमूह सहजमें समझ ले । देहाती बोली सब समझते हैं । भाषाका मूल करोड़ों मनुष्यरूपी हिमालय में मिलेगा, और उसमें ही रहेगा । हिमालयमें से निकली हुई गंगाजी अनन्त कालतक बहती रहेगी । ऐसा ही देहाती हिन्दीका गौरव रहेगा। और जैसे छोटी-सी पहाड़ीसे निकला हुआ झरना सूख जाता है, वैसे ही संस्कृतमयी तथा फारसीमयी हिन्दीकी दशा होगी ।
हिन्दू-मुसलमानोंके बीच जो भेद किया जाता है, वह कृत्रिम है। ऐसी ही कृत्रिमता हिन्दी व उर्दू भाषाके भेदमें है । हिन्दुओंकी बोलीसे फारसी शब्दोंका सर्वथा त्याग और मुसलमानोंकी बोलीसे संस्कृतका सर्वथा त्याग अनावश्यक है। दोनोंका स्वाभाविक संगम गंगा-जमुनाके संगम-सा शोभित और अचल रहेगा। मुझे उम्मीद है कि हम हिन्दी-उर्दू के झगड़े में पड़कर अपना बल क्षीण नहीं करेंगे। लिपिकी कुछ तकलीफ जरूर है । मुसलमान भाई अरबी लिपिमें ही लिखेंगे, हिन्दू बहुत करके नागरी लिपिमें लिखेंगे। राष्ट्र में दोनोंको स्थान मिलना चाहिए। अमलदारोंको दोनों लिपियोंका ज्ञान अवश्य होना चाहिए। इसमें कुछ कठिनाई नहीं है । अन्तमें जिस लिपिमें ज्यादा सरलता होगी, उसकी विजय होगी । भारतवर्षमें परस्पर व्यवहार के लिए एक भाषा होनी चाहिए, इसमें कुछ सन्देह नहीं है । यदि हम हिन्दी-उर्दूका झगड़ा भूल जायें, तो हम जानते हैं कि मुसलमान भाइयोंकी तो उर्दू ही राष्ट्रीय भाषा है । इस बात से यह सहजमें ही सिद्ध हो जाता है कि हिन्दी या उर्दू मुगलोंके जमानेसे राष्ट्रीय भाषा बनती जाती थी ।
आज भी हिन्दीसे स्पर्धा करनेवाली दूसरी कोई भाषा नहीं है। हिन्दी-उर्दूका झगड़ा छोड़नेसे राष्ट्रीय भाषाका सवाल सरल हो जाता है। हिन्दुओंको फारसी शब्द थोड़े- बहुत जानने पड़ेंगे । इस्लामी भाइयोंको संस्कृत शब्दोंका ज्ञान सम्पादन करना पड़ेगा । ऐसे लेन-देनसे इस्लामी भाषाका बल बढ़ जायेगा, और हिन्दू-मुसलमानोंकी एकताका एक बड़ा साधन हमारे हाथमें आ जायेगा । अंग्रेजी भाषाका मोह दूर करनेके लिए इतना अधिक परिश्रम करना पड़ेगा कि हमें लाजिम है कि हम हिन्दी-उर्दूका झगड़ा न उठावें । लिपिकी तकरार भी हमको नहीं करनी चाहिए।
अंग्रेजी भाषा राष्ट्रीय भाषा क्यों नहीं हो सकती, अंग्रेजी भाषाका बोझ प्रजाके ऊपर रखनेसे क्या हानि होती है, हमारी शिक्षाका माध्यम आजतक अंग्रेजी होनेसे प्रजा कैसे कुचल दी गई है, हमारी जातीय भाषा क्यों कंगाल हो रही है, इन सब बातोंपर मैं अपनी राय भागलपुर और भड़ौंचके व्याख्यानोंमें दे चुका हूँ, इसीलिए यहाँ में फिर नहीं देना चाहता । इन दोनों व्याख्यानोंमें से भाषा सम्बन्धी भाग में इस व्याख्यानके परिशिष्ट में रख दूँगा । हकीकतमें, इस बात में सन्देह नहीं हो सकता कि हमारे कविवर सर रवीन्द्रनाथ टैगोर, विदुषी एनी बेसेंट, लोकमान्य तिलक और अन्यान्य प्रतिष्ठित और आप्त व्यक्तियोंका मन्तव्य इस विषयमें ऐसा ही है । कार्यकी सिद्धिमें कठिनाइयाँ तो होंगी ही, किन्तु उसका उपाय करना इस सभापर निर्भर है। लोकमान्य तिलक महाराज ने अपना अभिप्राय कार्य करके बता दिया है। उन्होंने 'केसरी' और 'मराठा' में हिन्दी विभाग शुरू कर दिया है । भारतरत्न पंडित मदनमोहन मालवीयजीका अभिप्राय भी