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१९८. पत्र: अखबारोंको[१]

इन्दौर
मार्च ३१, १९१८

हिन्दी साहित्य सम्मेलनका अधिवेशन समाप्त होने जा रहा है। सम्मेलनने अपने कुछ प्रस्तावोंको अमलमें लानेके लिए माननीय रायबहादुर बिशनदत्त शुक्ल, रायबहादुर सरयूप्रसाद, बाबू शिवप्रसाद गुप्त, बाबू पुरुषोत्तमदास टण्डन, बाबू गौरीशंकर प्रसाद, पंडित वेंकटेशनारायण तिवारी और मुझे लेकर एक विशेष समितिके रूपमें हमारी नियुक्ति की है। तमिल और तेलगु-भाषी छ: ऐसे होनहार, सच्चरित्र तरुणोंके नाम दे जो तमिल और तेलगु-भाषी जनतामें हिन्दीका प्रचार करना ही अपने जीवनका ध्येय बनाने की दृष्टि से हिन्दी सीखना शुरू करें। प्रस्तावके अनुसार इनको इलाहाबाद या बनारसमें रखकर हिन्दी सिखाई जायेगी। समिति उनके रहने-खाने और साथ ही शिक्षा ग्रहण करनेका खर्च उठायेगी। अनुमान है कि उनको पाठ्यक्रम पूरा करने में अधिकसे-अधिक एक वर्ष लगेगा और हिन्दीमें कुछ थोड़ी योग्यता हासिल करते ही उनको उच्चा-दर्शपूर्ण कार्य―अर्थात्य थास्थिति तमिल या तेलगु-भाषी जनताको हिन्दी पढ़ाने का कार्य―सौंप दिया जायेगा, और उसके एवजमें उनको निर्वाह के लिए उचित वेतन दिया जायेगा। समिति कमसे-कम तीन वर्षतक उनको सेवाकी गारंटी देती है और प्रार्थियोंसे आशा करती है कि वे पूरी ईमानदारी और योग्यता के साथ निर्दिष्ट अवधि तक उक्त सेवा करनेका करार समितिके साथ करेंगे। समितिको आशा है कि इन तरुणोंकी सेवाकी अवधि अनिश्चित काल तक बढ़ती रहेगी और वे अपनी तथा देशकी सेवामें रत रहेंगे। समितिकी इच्छा है कि इन तरुणोंको अच्छा वेतन दिया जाये और उनसे पूरी-पूरी निष्ठा तथा सचाईकी उम्मीद की जाये। मुझे भरोसा है कि आप सम्मेलनकी इस बात से सहमत होंगे कि केवल हिन्दी ही एक ऐसी भाषा है जो विभिन्न प्रान्तोंके परस्पर काम-काजके लिए प्रयुक्त की जा सकती है, उसका रूप चाहे संस्कृत-तत्समताका हो या उर्दूका। सारे भारतके मुसलमान और मद्रास प्रेसीडेंसीके अतिरिक्त अन्य प्रदेशोंके हिन्दू तो अब भी उसका प्रयोग कर रहे हैं। मैं अंग्रेजीके माध्यमसे पढ़े शिक्षित भारतीयोंकी बात नहीं करता। उन्होंने तो आपसी बोलचालकी भाषा अंग्रेजी ही बना ली है और ऐसा करके, मेरी विनम्र रायमें देशको काफी हानि पहुँचाई है। यदि हमें स्वराज्यका आदर्श पूरा करना है, तो हमें एक ऐसी भाषाकी जरूरत पड़ेगी ही, जिसे देशकी विशाल जनता आसानीसे समझ और सीख सके। ऐसी भाषा तो सदासे हिन्दी या उर्दू ही रही है और मेरा व्यक्तिगत अनुभव तो यही है कि वह अभी भी बनी हुई है। मुझे मद्रास प्रान्तकी जनताकी देशभक्ति, आत्मत्याग और बुद्धिमत्तापर काफी भरोसा है; मैं जानता हूँ कि जो भी लोग राष्ट्रकी सेवा करना चाहेंगे या अन्य प्रान्तोंके साथ सम्पर्क रखना चाहेंगे,

  1. गांधीजीने हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी कार्रवाई समाप्त होते ही यह पत्र प्रकाशनके लिए समाचार-पत्रको दे दिया था।