पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 14.pdf/३२२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२९२
सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जानते, और न उनका अध्ययन करनेके लिए आपके पास समय है। गोधरामें एक सम्मेलन[१] हुआ था; और उसी सम्मेलनमें आम जनताने पहली बार सक्रिय भाग लिया। सम्मेलनके अन्तमें कुछ लोगोंने नेताओंपर ताना कसते हुए कहा था, “ऐसे सम्मेलनोंका आयोजन करने और उनमें हमें बुलानेसे क्या लाभ? खेड़ा जिलेमें आज स्पष्ट रूपसे फसलके लगभग मारे जानेकी समस्या उपस्थित है, और किसानोंको यह अधिकार है कि लगानकी वसूली मुलतवी कर दी जाये। आप लोग इस मामले में क्या कर रहे हैं? सुननेवालोंमें से कुछ लोगोंने इस तानेको उचित समझकर स्वीकार कर लिया और वचन दिया कि वे इस सम्बन्धमें कार्रवाई करेंगे। इसीके परिणामस्वरूप लगानको मुलतवी रखनेके लिए हजारों आदमियोंके दस्तखतसे प्रार्थनापत्र[२] भेजा गया। वसूली मुलतवी रखनेके लिए यह अर्जी ही काफी थी। इससे सरकारको केवल ब्याजका नुकसान होता, किन्तु उसके बदलेमें वह लोगोंका सद्भाव प्राप्त कर सकती थी। लेकिन अधिकारियोंने अनिश्चित और गलत रास्ता अपनाया। उन्होंने फसलका अन्दाजा लगाने के लिए आनावारी पत्रक मँगाने शुरू किये। इन पत्रकोंके बारेमें मैं कह सकता हूँ कि निष्पक्ष और बारीकी से जाँच करने पर वे खरे नहीं उतर सकते। राहत प्राप्त करनेके जितने रास्ते हो सकते थे, किसानोंने उन सबको आजमा लिया है। हरबार उनके सामने ये गलत कागजात रख दिये जाते थे। ऐसी हालतमें वे लोग क्या करते? अपने ढोर-डंगर, पेड़-पौधे और दूसरी सम्पत्ति बेचकर चुपचाप लगान चुका देते? मैं तो कहूँगा कि मेरी ही तरह आप भी व्यक्तिशः मौकेपर उपस्थित हों और किसानोंको वैसा करनेकी सलाह देकर देख लें। किसानोंके पास अनाज-वनाज तो है नहीं। ऐसी स्थितिमें उनसे लगान वसूल करनेके लिए कैसे-कैसे उपाय काममें लाये जाते हैं, यह आपको जानना चाहिए। मेरी नजरोंके सामने किसानोंको पौरुषहीन बनाया जाता और मैं चुपचाप देखता रहता, यह मुझसे नहीं हो सकता था। आपसे भी नहीं हो सकता। मेरे विचारसे किसी भी जातिके लिए ऐसा कहना बिलकुल वैध, न्यायसंगत और उचित है कि “आप हमारी अर्जियोंको नामंजूर करते हैं, इसलिए यदि अब हमें लगान अदा करना है, तो हम कर्ज लेकर या अपनी सम्पत्ति बेचकर ही अदा कर सकते हैं।” आप जरा आकर देखिए तो कि किसान लोग यह लड़ाई किस प्रकार पूरे उल्लासके साथ लड़ रहे हैं, किस प्रकार वे हर तरहकी क्षति उठानेके लिए अपना दिल कड़ा कर रहे हैं, और किस प्रकार बड़े-बूढ़े तथा स्त्रियाँ भी प्रदर्शनमें भाग ले रही हैं। कमसे-कम आपको तो यह देखना ही चाहिए कि इस स्वेच्छया कष्ट-सहनसे राष्ट्रका गौरव बढ़ेगा, जब कि अबतक यही कष्ट अनिच्छापूर्वक सहते रहनेसे उसका पतन ही हुआ है। यह तो रोटीकी लड़ाई है। राहत देनेकी प्रार्थना करनेवाली हजार सभाएँ आयोजित करनेका भी क्या फायदा है, यदि वे ऐसे अवसरपर, जब कि एक संवैधानिक आन्दोलन चलाया जा रहा है, लोगोंको यही सलाह दें कि अपने पेड़-पौधे, ढोर-डंगर, गहना-गाँठा बेचकर भी लगान अवश्य चुका दो? यह तो रोटी माँगनेपर पत्थर देने-जैसी बात हुई।

  1. देखिए “भाषण: समाज-सम्मेलन में”, ५-११-१९१७।
  2. यह प्रार्थनापत्र सर्वप्रथम १५ नवम्बर, १९१७ को कठलालके किसानोंने पेश किया था। बादमें १८,००० किसानोंके हस्ताक्षरोंसे इसी प्रकारके और भी प्रार्थनापत्र सरकारको भेजे गये थे।