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पत्र: के० नटराजनको

  मेरी कामना है कि यह पत्र आपकी अन्तरात्माका स्पर्श करे, आपकी शोधवृत्तिको उत्तेजित करे और आपको खेड़ा आकर लड़ाईको अपनी आँखों देखनेकी प्रेरणा दे। और तब यदि आप अपनी रिपोर्ट देना चाहेंगे तो मैं उसके लिए न केवल सहर्ष तैयार रहूँगा, बल्कि आपको वैसा करनेके लिए आमन्त्रित करूँगा, चाहे वह रिपोर्ट हमारे उद्देश्य के लिए कितनी भी हानिकर क्यों न हो। उस दशामें मुझे यह जाननेका सन्तोष तो रहेगा कि आपने कमसे-कम प्रश्नका भली-भाँति अध्ययन किया है। इतना कर देना अपने-आपके प्रति, एक मित्रके प्रति और अपने राष्ट्रके प्रति आपका फर्ज है। यदि आप इस उद्देश्यके लिए इतना समय भी―और इतना समय दिये बिना तो काम ही नहीं चल सकता―देनेको तैयार न हों तो आपको खेड़ाके मामलेमें कोई मत रखनेका अधिकार नहीं है।

आशा है, आपको इस प्रकार लिखकर मैंने जो धृष्टता की है, उसके लिए आप मुझे क्षमा करेंगे। मैंने आपसे कई बार कहा है कि अपने काममें आपका सहयोग और सहायता प्राप्त करनेके लिए में बराबर प्रयत्नशील रहता हूँ। फिर भी, यदि आप पूरा विचार करनेके बाद मुझे यह मदद न दे सकें, तो मुझे कोई शिकायत न होगी। आपको “सत्याग्रह” शब्दके पीछे भटक नहीं जाना चाहिए। आपके सामने एक ठोस मामला मौजूद है, और उसके सम्बन्धमें उसीके गुण-दोषके आधारपर मत स्थिर कीजिये।[१]

आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

 
  1. इस पत्रके सम्बन्धमें महादेवभाई अपनी डायरोमें कहते हैं: “बापूसे कहा गया कि इससे नटराजनको बहुत दुःख होगा। बापूने पत्रको फिर पढ़ा। दो वाक्य अपूर्ण रह गये थे। बापूने इसके लिए मुझे फटकारते हुए कहा: ‘मेरा तो खयाल है कि कमसे-कम तुम ऐसी बातोंकी ओर मेरा ध्यान अवश्य दिलाओगे। लेकिन तुमने ऐसा किया क्यों नहीं?’ मैंने जवाव दिया: ‘मैंने इसे वल्लभभाई और बैंकरको दिखाया था।” बापूने कहा: “यह तो बिलकुल ठीक है। वे कहेंगे कि मैं लिखना नहीं जानता। लेकिन इसमें दलील तो है ही। मैंने यह पत्र उनकी बुद्धिको झकझोरनेके लिए लिखा है, उनके मनको कष्ट पहुँचानेके लिए नहीं। यह पत्र पूछता है, भैया! तुम्हारी बुद्धि काम क्यों नहीं करतो?’”