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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हूँ, किन्तु आँख मूँदकर नहीं। इन्दौरके जैसे जलसेमें मैं इसलिए भाग लेता हूँ कि लोगोंके हृदयतक पहुँचकर उसपर असर डाल सकूँ और जहाँतक बन पड़े, उन्हें भौतिकतावादसे विमुख कर सकूँ। देशी भाषाओंके प्रश्नमें एक पक्ष भौतिक है और दूसरा धार्मिक। मैं लोगोंके सामने धार्मिक पक्ष रखनेका प्रयत्न कर रहा हूँ। सम्मेलनकी[१] सफलताकी माप यही होगी कि मैं अपने श्रोताओंमें धार्मिक पक्षके लिए कितनी अभिरुचि जगा पाता हूँ।

पिछले साल मैंने कांग्रेसके लिए पण्डालकी झंझट समाप्त कर देनेका प्रयत्न किया था और सुझाया था कि सभा बिलकुल सबेरे ही खुले मैदानमें हो। यही हिन्दुस्तानी तरीका है, और सबसे अच्छा भी। मेरी तो समझमें प्रेक्षागारकी व्यवस्था करना सुधार नहीं होगा मेरा आदर्श यह है कि पेड़के नीचे खड़े होकर लोगोंके सामने बोला जाये। यदि हजारों-लाखों लोगों तक आवाज न पहुँच सके, तो कोई परवाह नहीं। वे सुनने नहीं, देखने आते हैं, और हम जितनी कल्पना कर सकते हैं, उससे वे बहुत अधिक देख जाते हैं। प्रेक्षागार-व्यवस्थाका मतलब है स्थानको सीमित कर देना। खूबी तो इसमें है कि वहाँ असंख्य लोग आयें और फिर भी सारा काम बिलकुल व्यवस्थित ढंगसे होता रहे। पुराने जमानेके वार्षिक मेले ऐसे ही होते थे। यदि आजकल नये सामाजिक और राजनैतिक जीवनमें आप धर्मकी प्रतिष्ठा कर दीजिए, तो आप देखेंगे कि आपके सामने एक ऐसा सर्वांगपूर्ण और कार्यक्षम संगठन प्रस्तुत है, जिसपर आप बखूबी निर्भर कर सकते हैं।

लेकिन, आपको यह सब लिखनेका क्या फायदा? हम दोनों ही अपने-अपने ढंगसे सर्वथा व्यस्त हैं। हम पाश्चात्य सभ्यता के ज्वरसे ग्रस्त हैं। जो शाश्वत है, उसके लिए तो हमारे पास समय ही नहीं है। हमारे सम्बन्धमें अधिकसे-अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि हम शाश्वतकी अभीप्सा करते हैं, भले ही हमारे कार्य, हम जो कुछ कहते हैं, उसे झूठा सिद्ध कर दें।

मैं आपके पत्रको जुगाकर रखूँगा। क्या मैं इसका सार्वजनिक उपयोग कर सकता हूँ? और कृपया यह बताना न भूलें कि सस्ते होते हुए भी टिकाऊ मकान कैसे बनाये जा सकते हैं। ठेठ बुनियादसे छत तक की सारी तफसील चाहिए।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

 
  1. तात्पर्य इन्दौर में आयोजित २९-३१ मार्चके हिन्दी साहित्य सम्मेलनसे है, जिसकी अध्यक्षता गांधीजीने की थी।