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२२६. पत्र: देवदास गांधीको

[नडियाद]
अप्रैल १२, १९१८

चि० देवदास,

तुम्हारा पत्र मिला। मैं तुम्हें एक पत्र लिख चुका हूँ; वह मिल गया होगा। तुमने अपनी तन्दुरुस्तीका हाल नहीं लिखा। तुम बहनकी सेवा कर रहे हो, यह तो मुझे बहुत ही अच्छा लगता है। हम शास्त्रों में पढ़ते हैं कि शिष्य गुरुकी सेवा करने निकल पड़ते थे। यह विचार वहाँ जितनी मधुर भाषामें व्यक्त किया गया है, तुम्हारा वाक्य भी उतना ही मनोहर और स्वाभाविक है। यह सेवा तुम्हें कितने ऊँचे स्थानपर ले जायेगी, इसका अन्दाज में तो नहीं लगा सकता।

मैंने ३५ फीसदी वृद्धि एक दिनसे ज्यादाके लिए भी नहीं ली, इसका रहस्य समझना आसान है। मुझसे यह मामला अधिक नहीं खींचा जा सकता था। मालिकोंने मजदूरोंकी दृढ़तासे नहीं, बल्कि मेरे उपवासके कारण यह वृद्धि दी है, ऐसा वे अभी मानते हैं। अगर मैं इससे ज्यादा माँगता, तो वह मेरा अत्याचार माना जाता। जब मैं अधिक माँगनेकी स्थितिमें था, तब मैंने कमसे-कम लिया, यह मेरी सरलता, नम्रता और विवेक-बुद्धिका सूचक है। मैंने उपवास न किया होता, तो मजदूर हार ही जाते। वे उपवाससे ही अपनी प्रतिज्ञापर टिके रहे। ऐसी टेकके लिए कमसे-कम माँग ही उचित हो सकती है। ऐसी टेकके शब्दोंका ही पालन हो सकता है, सो हुआ। और मेरे उपवासमें जो दोष थे, वे मेरी कमसे-कम माँगसे हलके, बहुत हलके, हो गये। उपवासका रहस्य एस्थर बहनने खूब समझा। उसने तारसे बाइबिलका एक वाक्य भेजा था। उसका अर्थ यह है: “मनुष्य अपने मित्रोंके लिए अपने प्राण देनेसे अधिक प्रेम नहीं दिखा सकता।”[१] इस उपवासको मैं अपना अबतक का सबसे बड़ा कार्य मानता हूँ। इस उपवासके समय मुझे जो शान्ति मिली, वह अलौकिक थी।

मुझे अहमदाबादके कार्यमें जो आनन्द मिलता था, वह यहाँ नहीं मिल सकता। मन उद्विग्न रहा करता है और विचार उठते रहते हैं। ज्यादातर तो यही लगता है है कि लोगोंने इसका मर्म ठीक समझा है। कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि उन्होंने मर्म ठीक नहीं समझा और इससे मन दुःखी हो जाता है। काम तो अच्छा ही हो रहा है; किन्तु अब मन थक गया है। मैं मुहम्मद अलीकी लड़ाईके बोझसे दबा जा रहा हूँ। यह मुझे हाथमें लेनी ही पड़ेगी। ईश्वर इसके लिए मुझे शक्ति देगा, यह समझकर बैठा हूँ और इसलिए भीतर-ही-भीतर शान्ति भी अनुभव करता हूँ। बा मेरे साथ ही है।

  1. सेंट जॉन, १५।