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भाषण: ओडमें


आप एक गाँवके, एक जातिके और एक धन्धेके लोग हैं, इसीलिए आपको [अपनी-अपनी भूलपर] एक दूसरेसे क्षमा माँगना और संगठित रहना सीखना चाहिए। जो यह कहता है कि सत्याग्रह केवल सरकारके विरुद्ध ही किया जा सकता है, वह सत्याग्रहका अर्थ नहीं समझता। हम सरकारसे धमकी और उद्दंडताके सहारे नहीं लड़ना चाहते; बल्कि प्रसन्नतापूर्वक कष्ट सहकर लड़ना चाहते हैं। जो लोग कष्टोंके निवारणार्थ ज्ञानपूर्वक और सोच-समझकर कष्ट सहते हैं उन्हें कष्टोंसे सदा मुक्ति मिलती है। आपके लिए भी इस लड़ाईको जीतनेका यही मार्ग है। नायकामें पच्चीस किसानोंको जमीनोंकी जब्तीके नोटिस दिये गये और उनकी जमीनें जब्त कर ली गईं। मैंने उन बहादुर भाइयोंको बधाईकी चिट्ठी[१] लिखी। मैंने लिखा कि यह जब्ती तो केवल सरकारी कागजोंमें ही रहेगी। फिर भी आपका प्रण है कि आप जमीनें जब्त हो जानेपर भी विचलित नहीं होंगे और अपनी प्रतिज्ञा निबाहेंगे। सत्याग्रही भाइयोंको सान्त्वना देनेकी कोई आवश्यकता नहीं होती। उन्हें तो बधाई ही देनी होती है। यह उनके लिए आनन्द और धन्यवादका अवसर होता है। इसीलिए मैंने आपको सान्त्वना नहीं दी है, धन्यवाद ही दिया है। मैं आपको भी कहता हूँ कि आप जब्तीके हुक्मका प्रसन्नतापूर्वक स्वागत करें। मुझे तो स्वप्नमें भी यह नहीं लगता कि सरकार हमारी जमीनोंको जब्त कर सकती है। अंग्रेजी राज्यमें यह असम्भव है। यदि यह सम्भव हो जाये तो मेरे लिए अंग्रेजी हुकूमतके विरुद्ध विद्रोह करनेके अतिरिक्त कोई मार्ग ही नहीं रहता। अर्थात् जमीनें जब्त नहीं की जा सकतीं। आपने प्रतिज्ञा लेकर अपराध नहीं किया है; बल्कि उससे सरकारके प्रति वफादारी दिखाई है। फसल चार आनेसे कम हुई है, इसलिए हमने सरकारसे कानूनके अनुसार सरकारी लगानकी वसूलयाबी बन्द करनेकी प्रार्थना की, उसे आवेदन दिये, सभाएँ करके न्याय की माँग की और धारासभाके हमारे प्रतिनिधियोंने समस्त वैध उपायोंको आजमाया। फिर भी सरकारने लोगोंकी बातपर ध्यान नहीं दिया। तब जिन लोगोंमें बहादुरी है, मर्दानगी है और वफादारी है उन्हें ऐसे अवसरपर क्या करना चाहिए? राजा और प्रजाका सम्बन्ध ऐसा होना चाहिए कि जब राजा और प्रजाके बीच मतभेद खड़े हों तब राजा प्रजाके मुकाबले झुक जाये।

हमारी माँग यह नहीं है कि हमारी बात ठीक मानकर सरकार प्रजाके मुकाबले झुक जाये। हमने तो यही कहा है कि यदि हमने जो-कुछ कहा है वह सत्य सिद्ध हो तो हमें न्याय मिलना चाहिए। हमने पंचकी नियुक्ति की माँग की, उसे भी सरकारने स्वीकार नहीं किया। श्री प्रैटकी मान्यता यह है कि इस सम्बन्धमें लोग न कुछ कह सकते हैं और न कुछ माँग सकते हैं। हम पिछले पचास वर्षसे इस नीतिसे पीड़ित हैं। हम भयसे भिखारी बन गये हैं। हमारे पास इतना भी रुपया नहीं रहा है कि हम अपने घरोंकी सार-सँभाल कर सकें। पैदावार घटती जा रही है। जबतक हममें इतना डरपोकपन है तबतक भगवान् हमपर कृपा-दृष्टि भी कैसे कर सकते हैं? जहाँ राजा और प्रजाके सम्बन्ध सत्यकी नींवपर आधारित होते हैं वहां वर्षा भी समयपर होती है। राजा और प्रजा दोनोंमें अपनी-अपनी बातको लेकर वैर बँध गया है। सरकार कहती है कि

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