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२३४. “अन्त्यज स्तोत्र” की प्रस्तावना

नडियाद
चैत्र सुदी ७, १९७४ [अप्रैल १७, १९१८]

हम लोगों द्वारा अन्त्यजोंके प्रति किया जानेवाला व्यवहार हिन्दू धर्मके अत्याचारोंका ज्वलन्त उदाहरण है। हमारा यह व्यवहार कितना पतित और लज्जास्पद है इसका भाई अमृतलाल पढ़ियारने अपने ‘अन्त्यज स्तोत्र’ में बहुत सजीव वर्णन किया है। उसमें कविकी अतिशयोक्ति अवश्य है, परन्तु बहुत कम। भाई पढ़ियारने ऐसा मर्मस्पर्शी चित्र खींचा है कि उसे पढ़कर पाठकको रोमांच हुए बिना नहीं रह सकता। इस स्तोत्र में उनका क्रोध और उनकी वेदना साफ नजर आती है। यह स्तोत्र लाखों नर-नारियोंको पढ़कर सुनाया जाना चाहिए, ठीक उसी प्रकार जैसे मुहल्ले-मुहल्लेमें स्त्री-पुरुष भागवत आदि ग्रंथोंको सुनते हैं।

जबतक हम अस्पृश्यताके इस दोषसे मुक्त नहीं हो जाते, तबतक हम स्वराज्य भोगने योग्य हैं या नहीं यह एक बड़ा सवाल बना रहेगा। गुलामोंके मालिकोंको अगर स्वराज्य भोगने योग्य कहा जा सकता है तो हम भी हो सकते हैं। यह बात याद रखनी चाहिए कि हम खुद इस समय पराधीन अवस्थामें हैं; उससे मुक्त होनेकी इच्छा रखनेवालेको तो यह चाहिए कि वह अपने दोषोंपर गहराईसे विचार करे। गिरे हुए लोगोंके रजकणके समान छोटे-छोटे दोष हिमालयकी भाँति बड़े मालूम होते हैं। अन्त्यजोंके प्रति हम लोगोंके व्यवहारका भी यही हाल है। और फिर बात ऐसी है कि यह दोष है ही हिमालय-जैसा। इसी कारण वह हमारी उन्नतिमें बाधक बन रहा है। गोधरामें जो अन्त्यज परिषद्हु ई थी उसके बाद अस्पृश्यताके बारेमें जो वादविवाद चल पड़ा है उसे मैंने ध्यानसे और विनयपूर्वक समझनेकी कोशिश की है। उसमें मैंने अस्पृश्यताको बनाये रखनेके पक्षमें एक भी जोरदार दलील नहीं पाई। जहाँ शास्त्रके ऊपर आक्रमण किया जा रहा हो वहाँ शास्त्रकी बातें सामने रखकर बचाव करना, यह तो अन्धेके द्वारा न देखी जा सकनेवाली चीजके अस्तित्वसे इनकार करनेके समान है। यदि हम अपने व्यवहारका बचाव न्यायके आधारपर नहीं कर सकते तो शास्त्रोंका सहारा लेना व्यर्थ है। शास्त्र बुद्धिसे और नीतिसे परे नहीं हो सकते। यदि बुद्धि और नीतिका त्याग कर दिया जाये तो किसी भी पाखण्डका धर्मके नामपर बचाव किया जा सकता है।

इस घोर पापसे मुक्त होनेके लिए हमें ऐसा कठोर और सतत् प्रयत्न करना पड़ेगा जैसा कि श्री पढ़ियार कहते हैं, इस प्रकारके प्रयत्नमें ही हमारी उन्नति निहित है। अगर हम यह प्रयत्न पुराने तरीकेसे करेंगे तो धर्म-संग्रहके साथ-साथ अपने उद्देश्यमें सफलता भी प्राप्त कर सकेंगे। और यदि हम पाश्चात्य ढंगसे करेंगे तो हमारे तथा अन्त्यजोंके बीच एक दरार पड़ जायेगी।

जब हमारे बड़े-बूढ़े इस संसारसे विदा हो लेंगे तभी अन्त्यजोंका उद्धार होगा, यह कहना कायरता है। हमारा पुरुषार्थं तो इसमें है कि हम अपने बड़े-बूढ़ोंके हृदयोंमें दया