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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

परिणाम अंग्रेज कुटुम्बोंमें कभी नहीं देखा जाता। इंग्लैंडमें और दूसरे देशोंमें जहाँ शिक्षा मातृभाषामें दी जाती है वहाँ विद्यार्थी स्कूलोंमें जो-कुछ पढ़ते हैं, वह घर आकर अपने-अपने माता-पिताको सुनाते हैं और घरके नौकर-चाकरों और दूसरे लोगोंको भी वह मालूम हो जाता है। इस तरह जो शिक्षा बच्चोंको स्कूलमें मिलती है, उसका लाभ घरके लोगोंको भी मिल जाता है। हम तो स्कूल-कॉलेजमें जो-कुछ पढ़ते हैं वह वहीं छोड़ आते हैं। विद्या हवाकी तरह बहुत आसानीसे फैल सकती है। किन्तु जैसे कंजूस अपना धन गाड़कर रखता है, वैसे ही हम अपनी विद्याको अपने मनमें ही भरे रखते हैं और इसलिए उसका फायदा औरोंको नहीं मिलता। मातृभाषाका अनादर माँके अनादरके बराबर है। जो मातृभाषाका अपमान करता है, वह स्वदेशभक्त कहलाने लायक नहीं। बहत-से लोग ऐसा कहते सुने जाते हैं कि 'हमारी भाषामें ऐसे शब्द नहीं, जिनमें हमारे ऊँचे विचार प्रकट किये जा सकें।' किन्तु यह कोई भाषाका दोष नहीं। भाषाको बनाना और बढ़ाना हमारा अपना ही कर्त्तव्य है। एक समय ऐसा था जब अंग्रेजी भाषाकी भी यही हालत थी। अंग्रेजीका विकास इसलिए हुआ कि अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने भाषाकी उन्नति की। यदि हम मातृभाषाकी उन्नति नहीं कर सके और हमारा यह सिद्धान्त रहे कि अंग्रेजीके जरिये ही हम अपने ऊँचे विचार प्रकट कर सकते हैं और उनका विकास कर सकते हैं, तो इसमें जरा भी शक नहीं कि हम सदाके लिए गुलाम बने रहेंगे। जबतक हमारी मातृभाषामें हमारे सारे विचार प्रकट करनेकी शक्ति नहीं आ जाती और जबतक वैज्ञानिक विषय मातृभाषामें नहीं समझाये जा सकते, तबतक राष्ट्रको नया ज्ञान नहीं मिल सकेगा। यह तो स्वयंसिद्ध है कि :

१. सारी जनताको नये ज्ञानकी जरूरत है;

२. सारी जनता कभी अंग्रेजी नहीं समझ सकती;

३. यदि अंग्रेजी पढ़नेवाला ही नया ज्ञान प्राप्त कर सकता है, तो सारी जनताको नया ज्ञान मिलना असम्भव है।

इसका मतलब यह हुआ कि यदि पहली दो बातें सही हों तो जनताका नाश ही हो जायेगा। किन्तु इसमें भाषाका दोष नहीं। तुलसीदासजी अपने दिव्य विचार हिन्दीमें प्रकट कर सके थे। रामायण-जैसे ग्रन्थ बहुत ही थोड़े हैं। गृहस्थाश्रमी होकर भी सब-कुछ त्याग कर देनेवाले महान् देशभक्त भारत-भूषण पण्डित मदनमोहन मालवीयजीको अपने विचार हिन्दीमें प्रकट करने में जरा भी कठिनाई नहीं होती। पण्डितजीका अंग्रेजी भाषण चाँदीकी तरह चमकता हुआ कहा जाता है; किन्तु उनका हिन्दी-भाषण इस तरह चमका है, जैसे मानसरोवरसे निकलती हुई गंगाका प्रवाह सूर्यकी किरणोंसे सोनेकी तरह चमकता है। मैंने कितने ही मौलवियोंको धर्मोपदेश करते हुए सुना है। वे अपने गम्भीर विचार भी अपनी मातृभाषामें ही बड़ी आसानीसे प्रकट कर सकते हैं। तुलसीदासजीको भाषा सम्पूर्ण है, अमर है। इस भाषामें हम अपने विचार प्रकट न कर सकें तो दोष हमारा ही है।

ऐसा होनेका कारण स्पष्ट है : हमारी शिक्षाका माध्यम अंग्रेजी है। इस भारी दोषको दूर करने में सब मदद कर सकते हैं। मुझे लगता है कि विद्यार्थीगण भी सरकारसे विनयपूर्वक यह बात कह सकते हैं। साथ ही विद्यार्थियोंके पास तुरन्त प्रारंभ करने