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सन्देश: सत्याग्रही किसानोंको

 

माल-विभागकी या दूसरी सरकारी आज्ञा लोगोंके आवेदन देनेपर भी न बदली जाये तो उन्हें उस आज्ञाको चुपचाप शिरोधार्य कर ही लेना चाहिए, ऐसी ब्रिटिश संविधानको भावना नहीं है। यह राजनीति नहीं है। जिस आज्ञाको लोग ज्ञानपूर्वक अन्यायपूर्ण या अत्याचारपूर्ण मानें, उसका विरोध करना उनका जन्मसिद्ध अधिकार और कर्त्तव्य है। जो कानून कुटुम्बपर लागू होता है, वही राजा-प्रजाके बीच भी लागू होता है और जहाँ इस कानूनका भंग होता है, वहाँ राजा और प्रजामें संघर्ष होता है। प्रजा गुप्त रूपसे बेवफाई करती है। राजा अविश्वासी और शंकाशील हो जाता है। सरकारकी आज्ञाका विरोध करते समय एक बात अवश्य याद रखी जानी चाहिए। हम यह पूरी तरह नहीं कह सकते कि सरकारकी आज्ञा अनुचित है। हम उसे अनुचित मानें, तो भी सम्भव है, असलमें वह उचित हो। इसलिए निजी व्यवहारकी तरह राजा-प्रजाके बीचके मतभेदोंका निपटारा भी पंच द्वारा ही कराया जाना चाहिए। पुराने जमानेके राजा ऐसा ही करते थे और अंग्रेज सरकार भी सदा ऐसा ही करती है। ऐसे पंचको वह ‘कमीशन’ या ‘कमेटी’ का नाम देती है। राज्यका सम्मान कायम रखनेके लिए इस पंचका निर्णय अदालतोंके जरिए अमलमें नहीं लाया जाता, बल्कि राज्यकी न्याय-परायणतापर निर्भर माना जाता है। फिर भी अन्तिम परिणाम तो जैसा साधारण पंचके निर्णयका होता है, वैसा ही इसके निर्णयका भी होता है। लोकमतका आदर किये बिना हुकूमत चलाना असम्भव है। परन्तु अगर राजा कमेटी या कमीशन भी मुकर्रर न करे, तो प्रजा क्या करे? जिस राष्ट्रमें पशु-बलकी प्रधानता होती है, उसमें मारकाट होती है और प्रजा शस्त्रोंका उपयोग करके न्याय-प्राप्तिके लिए लड़ती है। मेरा अपना तो यह अनुभव है कि यह पद्धति बेकार है। मैं यह भी मानता हूँ कि सभी धर्म-शास्त्रों में मारकाट द्वारा न्याय प्राप्त करनेकी पद्धतिको निन्दा की गई है और इस पद्धतिको हम पारिवारिक व्यवहारमें कभी लागू नहीं करते। सीधा रास्ता यह है कि सरकारी आज्ञाका अनादर करनेमें हमें जो दुःख उठाना पड़े, उसे हम धीरजसे और रोष किये बिना उठायें। इससे बहुतसे मतलब पूरे हो जाते हैं। ‘अगर हम झूठे साबित हों, तो जो दुःख हमने उठाया, वह उचित माना जायेगा और अगर सच्चे हों, तो विरोधी पक्ष यानी कारी दलमें ममता उत्पन्न हुए बिना रह नहीं सकती।’ नतीजा यह होगा कि सरकारके सम्मुख अन्तमें न्याय करने के सिवा कोई चारा ही न रह जायेगा। यह तथ्य शास्त्रसे प्रमाणित है। शास्त्रों में सत्यकी सदा जय ही मानी गई है और इसकी सत्यता हम समय-समयपर अनुभव करते हैं। इस प्रकार खेड़ाके लोग सत्यके लिए, अर्थात् धर्मके लिए दुःख उठानेके लिए निकल पड़े हैं।

कहीं हम कमजोर न हो जायें, इसलिए हमने अपनेको प्रतिज्ञासे बाँध लिया है। इस प्रकारकी प्रतिज्ञा लिये बिना कोई राष्ट्र उन्नति नहीं करता। ‘प्रतिज्ञाका अर्थ है, अटल निश्चय। जो मनुष्य निश्चय नहीं कर सकता, वह बिना पतवारकी नावकी तरह इधर-उधर टकराकर नष्ट हो जाता है।’ कमिश्नर साहब कहते हैं कि यह प्रतिज्ञा अनुचित है और बिना सोचे-विचारे ली गई है। प्रतिज्ञा अनुचित नहीं है, यह हम पहले देख चुके हैं; क्योंकि हम जिस आज्ञाको अनुचित मानते हैं, हमें उसका विरोध करनेका अधिकार है। यह प्रतिज्ञा बिना विचारे नहीं ली गई, इस बातको हरएक प्रतिज्ञा