ही होती है, हार कभी नहीं होती यह बात स्वयं समझकर लोगोंको समझानी चाहिए।
मोहनदास करमचन्द गांधी
खेड़ा सत्याग्रह
२३७. पत्र: ए० एच० वेस्टको
नडियाद
अप्रैल १७, [१९१८]
मैं यह पत्र एक छोटे-से गाँवसे लिख रहा हूँ। यहाँ में श्रीमती गांधी तथा अन्य लोगोंके साथ सत्याग्रहका प्रचार करने आया हूँ। साथमें यह कतरन[१] है। संघर्ष महान् है, किया जाने लायक है, किन्तु इससे मेरा भार अत्यधिक बढ़ गया है।
मैं तुम्हारे पिछले पत्रकी ज्यादा विस्तारसे चर्चा नहीं करूँगा, केवल इतना ही कहूँगा “कि तुम जो चाहो, करो। फीनिक्स और उसके सारे अर्थ-उद्देश्य जितने मेरे हैं, उतने ही तुम्हारे भी हैं। तुम मौकेपर मौजूद हो। अतः तुम्हें जो सबसे अच्छा लगे, अवश्य करो। मैं तो केवल सलाह ही दे सकता हूँ।” तुम ठीक कहते हो, अवश्य ही देशी भाषा-विषयक मेरे विचारोंका असर मेरे ‘इंडियन ओपिनियन’ सम्बन्धी दृष्टिकोणपर पड़ा होगा। निःसन्देह मैं चाहता हूँ कि यह अंग्रेजीमें निकले, किन्तु मुझे लगता है कि यदि यह अंग्रेजीमें न निकल सके तो इसे गुजराती में तो अवश्य ही निकालना चाहिए। शायद तुम यह चाहते होगे कि मैं इसका उलटा कहूँ तो अच्छा हो। मेरे लिए इतना जान लेना काफी है कि तुम मौकेपर मौजूद हो। तुम्हारे प्रति मेरा स्नेह और विश्वास अक्षुण्ण बना हुआ है। जॉबर्ट पार्कमें तथा अन्यत्र भी हमारे बीच जो हार्दिकतापूर्ण बातें हुई थीं, उनमें से और भी बहुत सारी बातें याद आ रही हैं। उस समय भी यह सवाल उठा था कि ‘इंडियन ओपिनियन’ को कमसे-कम अंग्रेजीमें तो अवश्य ही प्रकाशित किया जाये। जब मणिलालके पत्रके साथ नत्थी हुआ तुम्हारा पत्र मिला तब मैं जरा भी उत्तेजित नहीं हुआ। मैं जानता था कि तुम शान्त रहोगे और सारी स्थितिको निर्लिप्त भावसे ग्रहण करोगे। मैं तुम्हारे नये तथा साहसिक प्रयोगोंकी पूर्तिको रुचिके साथ देखता रहूँगा। दादीमाँ और श्रीमती वेस्टको मेरा स्नेह कहना। पता नहीं, सैमपर इन सब चीजोंका क्या असर पड़ा है। उसे पत्र लिखनेको कहना।
सस्नेह,
आपका,
मो० क० गांधी
गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल अंग्रेजी पत्र (सी० डब्ल्यू० ४४२९) की फोटो-नकलसे।
सौजन्य: ए० एच० वेस्ट।
- ↑ उपलब्ध नहीं है।