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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

निर्भयता आदि व्रतोंका पालन करनेका प्रयत्न करता रहता है। वह प्राण छोड़ देगा, किन्तु सत्यको कभी न छोड़ेगा। वह स्वयं मर जायेगा, परन्तु दूसरोंको नहीं मारेगा। वह स्वयं दुःख उठा लेगा, परन्तु दूसरेको दुःख नहीं देगा। अपनी स्त्रीके प्रति भी भोग-दृष्टि न रखकर उसके साथ मित्रकी तरह रहेगा। इस तरह सदाचारी ब्रह्मचर्यका पालन कर शरीरके सत्त्वको भरसक बचानेका प्रयत्न करता है। वह चोरी नहीं करता, रिश्वत नहीं लेता। वह अपना और दूसरोंका समय खराब नहीं करता। वह अकारण धन इकट्ठा नहीं करता। वह ऐश-आराम नहीं बढ़ाता और सिर्फ शौककी खातिर निकम्मी चीजें काममें नहीं लाता; सादगीमें ही सन्तोष मानता है। यह पक्का विचार रखकर कि 'मैं आत्मा हूँ, शरीर नहीं हूँ और आत्माको मारनेवाला दुनियामें पैदा नहीं हुआ, वह आधि, व्याधि और उपाधिका डर छोड़ देता है और चक्रवर्ती सम्राटोंसे भी नहीं दबता; किन्तु निडर होकर काम करता चला जाता है।

यदि हमारे विद्यालयोंसे ऊपर कहे हुए परिणाम न निकल सकें, तो इसमें विद्यार्थी, शिक्षा और शिक्षक तीनोंका दोष होना चाहिए। किन्तु चरित्रकी कमी पूरी करनेका काम तो विद्यार्थियोंके ही हाथमें है। यदि वे चरित्र-निर्माण नहीं करना चाहते, तो शिक्षक या पुस्तकें वह चीज नहीं दे सकते। इसलिए जैसा मैंने ऊपर कहा है शिक्षाका उद्देश्य समझना जरूरी है। चरित्रवान् बननेकी इच्छा रखनेवाला विद्यार्थी किसी भी पुस्तकसे चरित्रका पाठ ले लेगा। तुलसीदासजीने कहा है :

जड़-चेतन, गुण-दोषमय, विश्व कीन्ह करतार।
सन्त-हंस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार॥

रामचन्द्रजीकी मूर्तिके दर्शन करनेकी इच्छा रखनेवाले तुलसीदासजीको कृष्णकी मूर्ति रामके रूपमें दिखाई दी। हमारे कितने ही विद्यार्थी, यदि विद्यालयका नियम हो तो उसे पालनेके लिए, बाइबिलके वर्गमें जाते हैं, फिर भी बाइबिलके ज्ञानसे अछूते रहते हैं। दोष निकालनेकी नीयतसे गीता पढ़नेवालेको गीतामें दोष मिल जायेंगे। मोक्ष चाहनेवालेको गीता मोक्षका सबसे अच्छा साधन बताती है। कुछ लोगोंको कुरान शरीफमें सिर्फ दोष-ही-दोष दिखाई देते हैं; दूसरे उसे पढ़कर व मनन करके इस संसार-सागरसे पार होते हैं। किन्तु मुझे डर है कि बहुत-से विद्यार्थी शिक्षाके उद्देश्यपर विचार ही नहीं करते। वे पढ़नेका चलन है, इसी कारण स्कूल जाते हैं। कुछ आजीविका या नौकरीके हेतुसे जाते हैं। मेरी तुच्छ बुद्धिके अनुसार शिक्षाको आजीविकाका साधन समझना नीच वृत्ति कही जायेगी। आजीविकाका साधन शरीर है और पाठशाला चरित्र-निर्माणकी जगह है। उसे शरीरकी जरूरतें पूरी करनेका साधन समझना चमड़ेकी जरा-सी रस्सीके लिए भैंसको मारनेके बराबर है। शरीरका पोषण शरीर द्वारा ही होना चाहिए। आत्माको उस काममें कैसे लगाया जा सकता है? 'तू अपनी रोटी अपने पसीनेसे कमा'—यह ईसा मसीहका महावाक्य है। श्रीमद् भगवद्गीतासे भी यही ध्वनि निकलती जान पड़ती है। इस दुनियामें ९९ फीसदी लोग इस नियमके अधीन रहते हैं और निडर बन जाते हैं। जिसने दाँत दिये हैं वही चबेना भी देगा, यह सच्ची बात है। किन्तु यह आलसीके लिए नहीं कही गई है। विद्यार्थि-