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भाषण : बिहार छात्र-सम्मेलनमें

योंको शुरूमें ही यह सीख लेना जरूरी है कि उन्हें अपनी आजीविका अपने बाहुबलसे ही कमानी है। उसके लिए मजदूरी करने में शर्म नहीं आनी चाहिए। इससे मेरा यह मतलब नहीं कि हम सब हमेशा कुदाली ही चलाया करें। परन्तु यह समझनेकी जरूरत है कि दूसरा धन्धा करते हुए भी आजीविकाके लिए कुदाली चलानेमें जरा भी बुराई नहीं और हमारे मजदूर भाई हमसे नीचे नहीं हैं। इस सिद्धान्तको मानकर, इसे अपना आदर्श समझकर, आदमी किसी भी धन्धेमें पड़े, तो उसके काम करनेके ढंगमें शुद्धता और असाधारणता होगी। वह लक्ष्मीका दास नहीं बनेगा; लक्ष्मी उसकी दासी बनकर रहेगी। यदि यह विचार सही हो तो विद्यार्थियोंको मजदूरी करनेकी आदत डालनी पड़ेगी। ये बातें मैंने धन कमानेके उद्देश्यसे शिक्षा लेनेवालोंके लिए कही है।

जो विद्यार्थी शिक्षाका उद्देश्य सोचे बिना पाठशाला जाता है, उसे इसका उद्देश्य समझ लेना चाहिए। वह आज ही निश्चय कर सकता है कि 'मैं आजसे पाठशालाको चरित्र-निर्माणका साधन समझूंगा।' मुझे पूरा भरोसा है कि ऐसा विद्यार्थी एक महीनेमें अपने चरित्रमें जबरदस्त परिवर्तन कर डालेगा और उसके साथी भी यह परिवर्तन महसूस करेंगे। यह शास्त्रका वचन है कि हम जैसे विचार करते हैं वैसे ही बन जाते हैं।

बहुत-से विद्यार्थी ऐसा मानते हैं कि शरीरके लिए ज्यादा प्रयत्न करना ठीक नहीं। किन्तु शरीरके लिए व्यायाम बहुत जरूरी है। जिस विद्यार्थीके पास शरीर-सम्पत्ति नहीं वह क्या कर सकेगा? जैसे दूध कागजके बरतनमें नहीं रह सकता, वैसे ही शिक्षारूपी दूधका विद्यार्थियोंके कागज जैसे शरीरमें से निकल जाना सम्भव है। शरीर आत्माका निवास स्थान होनेके कारण तीर्थ जैसा पवित्र है। उसकी रक्षा करनी चाहिए। सुबह-तड़के डेढ़ घंटा और शामको डेढ़ घंटा साफ हवामें नियमसे और उत्साहके साथ घूमनेसे शरीरमें शक्ति बढ़ती है और मन प्रसन्न रहता है। और ऐसा करने में लगाया हुआ समय बरबाद नहीं होता। ऐसे व्यायाम और आरामसे विद्यार्थीकी बुद्धि तेज होगी और वह सब बातें जल्दी याद कर लेगा। मुझे लगता है कि गेंद-बल्ला या बॉल-बैट इस गरीब देशके लिए ठीक नहीं। हमारे देशमें निर्दोष और कम खर्चवाले बहुतसे खेल हैं।

विद्यार्थीका जीवन निर्दोष होना चाहिए। जिसकी बुद्धि निर्दोष है, उसे ही शुद्ध आनन्द मिल सकता है। उसे दुनियामें आनन्द लेनेको कहना उसका आनन्द छीन लेनेके बराबर है। जिसने यह निश्चय कर लिया हो कि मुझे ऊँचा दरजा पाना है, उसे वह मिल जाता है। निर्दोष बुद्धिसे रामचन्द्रने चन्द्रमाकी इच्छा की तो उन्हें चन्द्रमा मिल गया।

एक तरहसे सोचनेपर जगत् मिथ्या मालूम होता है और दूसरी तरहसे देखनेपर वह सत्य मालूम होता है। विद्यार्थियोंके लिए तो जगत् है ही, क्योंकि उन्हें इसी जगत् में पुरुषार्थ करना है। रहस्य समझे बिना जगत् को मिथ्या कहकर मनमानी करनेवाला और जगत् को छोड़ देनेका दावा करनेवाला संन्यासी भले ही हो, किन्तु वह मिथ्याज्ञानी है।

अब मैं धर्मकी बातपर आ गया। जहाँ धर्म नहीं वहाँ विद्या, लक्ष्मी, स्वास्थ्य आदिका भी अभाव होता है। धर्मरहित स्थिति बिलकुल शुष्क होती है, शून्य होती है। हम धर्मकी शिक्षा खो बैठे हैं। हमारी पढ़ाईमें धर्मको जगह नहीं दी गई। यह तो