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२५३. पत्र: जे० एल० मैफीको

दिल्ली
अप्रैल २८, १९१८

प्रिय श्री मैफी,

बड़ी कृपा हो, अगर आज कान्फ्रेन्समें मुझे वाइसरायसे उर्दूमें बोलनेकी अनुमति दिला दें। मैं इसका एक अनुवाद भेजना चाहता हूँ, लेकिन सोचता था कि यदि मैं उतने ही शब्द कहूँ जितने इस प्रस्तावके [१] समर्थनके लिए आवश्यक हों तो मेरा बोलना अधिक प्रभावपूर्ण हो सकेगा। मेरे निवेदनका उत्तर आप शायद श्री एण्ड्रयूज़की मारफत भेजेंगे।

यह भी बतायेंगे कि आप दिल्ली में कब तक हैं।[२]

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया: होम, वार (डिपॉजिट): अक्तूबर १९१८, संख्या २६

 
  1. देखिए अगला शीर्षक।
  2. दूसरे दिन गांधीजीको मैफीका निम्नलिखित उत्तर मिला: “अब देखता हूँ, सबेरे ज्यादा काम होनेसे उतावलीमें मैं आपके पत्रका आखिरी हिस्सा नहीं पढ़ पाया और फलत: केवल पहले प्रश्न यानी आपके भाषणवाली बातका ही जवाब भेज दिया। और उसके सम्बन्ध में अगर कुछ कहनेकी इजाजत दें तो कहूँगा कि आपकी उपस्थितिसे तथा आपने जो सीधे-सादे शब्द कहे और जिस प्रकारसे कहे उससे वाइसराय काफी प्रभावित हुए। आपको आगे निश्चित कार्थंकी गुंजाइश दिखाई देती है, यह जानकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई। यह सब बहुत आवश्यक है और आपको बादमें इसके लिए पश्चाताप नहीं होगा। अधिकार-प्राप्तिके लिए संघर्षका उद्धत हो जाना अधिकारोंको पानेका सदा सर्वोत्तम तरीका नहीं हुआ करता। यदि आपको हममें विश्वास है तो हमारे लिए लड़िये और धीरज न खोइए। हम आज रातको प्रस्थान कर रहे हैं, लेकिन कभी कोई योग्य सेवा हो तो अवश्य सूचित करें।”