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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

गहरा मतभेद क्यों न हो। साथ ही मैं कह सकता हूँ और इसका मुझे हर्ष है कि सम्मेलनकी समितियोंमें सभी दलोंको अपने विचार स्वतन्त्रतापूर्वक व्यक्त करने दिये गये थे। जहाँतक मेरा सम्बन्ध है, मैंने सोच-समझकर अपने विचार न तो उस समितिमें प्रकट किये जिसमें मुझे रखा गया था और न सम्मेलनमें। मुझे लगा कि उद्देश्योंकी अधिकसे-अधिक अच्छी सेवा उसमें पेश हुए प्रस्तावोंका समर्थन मात्र करना ही होगा। वह समर्थन मैंने मनमें जरा भी गाँठ न रखकर किया है। इसी पत्रसे संलग्न अलग पत्र में[१] कुछ सुझाव दे रहा हूँ। इनको सरकारके स्वीकार करते ही, मैं अपने शब्दोंको अमली जामा पहनाने लगूँगा। मैं मानता हूँ कि हम निकट भविष्यमें जिस साम्राज्यके वैसे ही हिस्सेदार बननेकी आकांक्षा रखते हैं जैसे कि समुद्र-पारके अन्य ‘डोमीनियन’ हैं, उस साम्राज्यकी संकटकी घड़ी में हमें बिना किसी मीन-मेखके पूरी तौरपर उसका समर्थन करना चाहिए और हमने यही निर्णय भी किया है। किन्तु इतना तो स्पष्ट ही है कि इस समर्थनके पीछे हमारी यही आशा है कि इसके फलस्वरूप हम अपनी मंजिल तक और उसी तरह जल्द पहुँच जायेंगे, जिस तरह कर्त्तव्य-पालनके साथ ही हमें तत्सम्बन्धी अधिकार प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार लोगोंको यह माननेका हक है कि जिन सुधारोंके जल्द ही होनेकी आशा आपके भाषण में दिलाई गई है, उनमें कांग्रेस और मुस्लिम लीगकी योजनाके मुख्य सिद्धान्तका समावेश होगा। मैं निश्चित रूपसे मानता हूँ कि इस विश्वासके कारण ही सम्मेलनके अधिकांश सदस्य सरकारको पूरे दिलसे सहयोग देने में समर्थ हुए हैं।

मैं अपने देशबन्धुओंको समझा सकूँ, तो जबतक युद्ध जारी है, तबतक कांग्रेसके सारे प्रस्ताव उससे एक ओर रखवा दूँ और ‘होमरूल’ या ‘उत्तरदायी शासन’ शब्दोंका उच्चारण तक न करने दूँ और साम्राज्यके इस संकटके समय में सभी समर्थ भारतीयोंको उसकी रक्षार्थ चुपचाप कुरबान हो जानेको प्रेरित करूँ। मैं जानता हूँ कि इतना करने पर हम साम्राज्यके सबसे बड़े और आदरणीय साथी बन जाते हैं और जातीय भेदभाव तो नष्ट हो ही जायेगा। किन्तु हिन्दुस्तानके लगभग पूरे शिक्षित-वर्गने इससे कम कारगर उपाय काममें लेना तय किया है और अब यह कहना भी सम्भव नहीं रह गया है कि शिक्षित-वर्गका आम जनतापर कोई असर नहीं है। मैं जबसे दक्षिण आफ्रिकासे भारत आया हूँ, तभीसे जनताके गहरे सम्पर्कमें आता रहा हूँ और मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि ‘होमरूल‘ की आकांक्षा जनताके दिलोंमें घर कर गई है। कांग्रेसके पिछले अधिवेशनमें में उपस्थित था और उस प्रस्तावको तैयार करनेमें मैंने भी भाग लिया था, जिसमें कहा गया है कि पार्लियामेंट कानून द्वारा जो समय निश्चित करे, उतने समयके भीतर हिन्दुस्तानको पूरी तरह जिम्मेदार हुकूमत दे देनी चाहिए। मैं स्वीकार करता हूँ कि यह बड़ा साहस-साध्य कदम है। पर उसके साथ मुझे यह भी साफ महसूस होता है कि भारतीय जनता तबतक

संतुष्ट नहीं हो सकती जबतक उसे इस बातका स्पष्ट झलक न मिल जाये कि ‘होमरूल’ आ रहा है और बहुत जल्द आ रहा है। हिन्दुस्तान में ऐसे बहुत हैं, जो यह मानते हैं कि ‘होमरूल’ लेनेके लिए जितना भी त्याग किया जाये, थोड़ा है। इसीके साथ वे इतने जाग्रत भी हैं कि जिस साम्राज्य में वे अपना अन्तिम उद्दिष्ट स्थान प्राप्त करनेकी आशा रखते

  1. देखिए अगला शीर्षक।