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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

स्पिऑनकॉप, वॉलकँजके[१] युद्धोंमें व्यक्तिशः उपस्थित था। जनरल बुलरके खरीतोंमें [२] मेरा विशेष उल्लेख किया गया था। १९०६ के जूलू विद्रोहमें भी मैं इसी तरहके ९० भारतीयोंके एक दलका मुखिया था,[३] और उस समयकी नेटाल सरकारने मुझे विशेष रूपसे धन्यवाद दिया था। और अन्तमें मैंने वर्तमान युद्धके प्रारम्भ होते ही लन्दनमें करीब १०० छात्रोंका एक डोली-वाहक दल खड़ा किया था, और मुझे १९१५ में केवल इसलिए भारत लौट जाना पड़ा कि मैं प्लुरिसीके भयानक आक्रमणसे पीड़ित था। यह बीमारी मुझे आवश्यक प्रशिक्षण प्राप्त करते समय हो गई थी।[४] पुन: स्वस्थ होनेपर मैंने लॉर्ड हार्डिंगको अपनी सेवाएँ प्रस्तुत कीं। किन्तु उस समय यह अनुभव किया गया कि मुझे मेसोपोटामिया या फ्रांस नहीं भेजा जाना चाहिए, बल्कि भारतमें ही रहना चाहिए। यहाँ मैं इस बात की चर्चा नहीं करता कि अपना यह प्रस्ताव में प्रान्तीय अधिकारियोंके सामने भी बार-बार रख चुका हूँ।

हृदयसे आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

नेशनल आर्काइव्ज़ ऑफ इंडिया: होम, वार (डिपॉज़िट): अक्तूबर १९१८, संख्या २६

२५८. पत्र: जे० एल० मैफीको

नडियाद
अप्रैल ३०, १९१८

प्रिय श्री मैफी,

मैं चाहता हूँ कि कृपया वाइसरायको मेरा पत्र आप पढ़कर सुना दें और मुझे नडियादके पतेपर तार दें कि उस पत्रको प्रकाशित करने में क्या उनको कोई आपत्ति है?[५] उसका उद्देश्य बुराईकी शक्तियोंका प्रतिकार करना है। मेरी स्थितिका स्पष्टीकरण चाहनेवालोंने मुझपर प्रश्नोंकी झड़ी लगा दी है। लोग कुछ साफ नहीं समझ पा रहे हैं। अफवाह जितनी शरारत कर सकती है, कर रही है। मैं उसका असर दूर करना चाहता हूँ। मुझमें जो उतावली दिखती है, उसके लिए आप मुझे क्षमा करें।

दूसरे सह-पत्रमें[६] मेरी सेवाएँ देनेकी बात है। आप उसका जो उपयोग चाहें कर

  1. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ १४७, १५९-६०।
  2. देखिए खण्ड ३, पृष्ठ २३३।
  3. भारतीय डोली-वाहक दल, देखिए खण्ड ५, पृष्ठ ३७८-७९।
  4. देखिए खण्ड १२, पृष्ठ ५२७-३३ और ५४९-५०।
  5. मैफीने २ मईको गांधीजीको तार दिया था: “पत्रके प्रकाशनके सम्बन्धमें आप अपने विवेकके अनुसार निर्णय कर सकते हैं। प्रकाशनके लिए अनुमतिकी प्राप्तिका उल्लेख न किया जाये।”
  6. देखिए पिछला शीर्षक।