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२६१. पत्र: मगनलाल गांधीको

नडियाद
[अप्रैल-मई, १९१८]

चि० मगनलाल,

लीमडीका पत्र अच्छा है। मेरी सलाह है कि तुम स्वयं लीमडी जाओ और वहाँ काम सिखानेके बाद किसी दूसरेको रखनेकी जरूरत जान पड़े तो रखो। मुझे निश्चय हो गया है कि तुम्हें अब बाहर निकलना ही चाहिए। अगर लीमडीसे तुम दो-एक दिनके लिए आश्रम हो आना चाहो तो वैसा भी कर सकते हो। यदि अन्तमें मामाको लीमडी भेजना आवश्यक लगा तो उन्हें वहाँ भेज दिया जायेगा। एक महीनेमें सब-कुछ नहीं सिखाया जा सकता यह बात तुम वहाँ जाकर ही बता सकोगे या समझा सकोगे। मैं [तुम्हें] शिवलालको अधिक वेतन देकर भी बुलानेकी सलाह देता हूँ। तुम जब लीमडी जाओ तब बढवानमें उसके पितासे बातचीत करके उनका मन शान्त कर सकते हो। उन्हें समझाना कि आश्रम सबको बाबाजी बनाने के लिए नहीं है। आश्रममें रहकर जो लोग धनोपार्जन कर रहे हैं उनके नाम आदि देना। शिवलालके आनेसे तुम वहाँसे पूर्णतया मुक्त हो सकोगे। मेरी इच्छा तो यह है कि चाहे जितनी कठिनाई क्यों न उठानी पड़े तुम्हें लीमडी जाना ही चाहिए। लीमडी यदि तुम बा को साथ ले जाओ, तो अच्छा हो। वह तुम्हें खाना खिलायेगी और वहाँ की स्त्रियोंमें थोड़ा-बहुत काम भी करेगी। सन्तोकसे तो अभी नहीं ही आया जा सकता। वह तो फिलहाल हिसाब रखेगी और लड़कियोंकी देखभाल करेगी। अनसूयाबहनको अगर चर्खा अभीतक न भेजा हो तो भेज देना। हम आश्रममें चर्खा चलाना शुरू कर दें तो अच्छा हो। यह तुम्हारे बीजापुरसे लौट आनेके [और वहाँकी सब व्यवस्था देख आनेके] पश्चात् ही सम्भव हो सकता है। क्या आदरणीय खुशालभाईका स्वास्थ्य ऐसा है कि वे हमारे किसी काममें हाथ बँटा सकें? उनकी मनोवृत्ति इस ओर है? देव भाभीको भी [हमारे काममें योग देनेके लिए] प्रेरित करना।

बापूके आशीर्वाद

गांधीजीके स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू ० ५७२९) से।

सौजन्य: राधाबेन चौधरी