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२६२. पत्र: हरिलाल गांधीको

[गाड़ीमें]
मई १, १९१८

[चि० हरिलाल,]

तुम्हारा पत्र मुझे दिल्लीमें मिला था। तुम्हें क्या लिखू।? सब लोग अपने-अपने स्वभावके अनुसार कार्य करते हैं। स्वभावको जीतने में ही पुरुषार्थ है, यही धर्म है। यदि तुम यह पुरुषार्थ करो, तो तुम्हारे दोष भुला दिये जायेंगे। तुम कहते हो कि तुमने चोरी की ही नहीं; इसलिए मैं तो मान लूँगा। परन्तु दुनिया नहीं मानेगी। दुनियाके ताने सह लेना और आइन्दा सावधान रहना। दुनियाकी राय बदलना। तुम्हारी दुनिया तुम्हारा मालिक है। अदालतमें तुम्हारा न्याय हो, तो उससे डरना मत। मेरी मानो तो वकील न करना। उन्हींके वकीलको सब बातें समझा देना।

तुम्हारे हाथमें हीरा था, लेकिन अपनी स्वभावगत विचारहीनता और अधीरतासे तुम उसे खो बैठे। तुम बच्चे नहीं हो। तुमने संसारका रस कम नहीं चखा है। अगर जी भर गया हो, तो पीछे लौट आना। हिम्मत न हारना। तुम सच्चे हो, तो सत्य पर से विश्वास न छोड़ना । सत्य ही परमेश्वर है। गुण जड़ नहीं, चेतन हैं। तुम्हारा जीवन विचारहीन और असंयत रहा है। मैं चाहता हूँ कि अब तुम उसे विचारमय और संयममय बनाओ।

दिल्लीमें मेरे हाथों सहज ही एक बड़ा भारी काम[१] हो गया। उसका कुछ वर्णन तुम अखबारोंमें पढ़ोगे। मेरे पास लिखनेका समय नहीं है। फुरसत निकालकर भाई महादेव तुम्हें लिखेंगे। वह सब उन्होंने देखा है। उन्होंने तुम्हारी कमी तो पूरी कर दी, किन्तु यह ममता अभीतक दिलसे नहीं जा रही है कि उनके स्थानपर तुम होते, तो कितना अच्छा होता। अगर मेरे दूसरे लड़के न होते, तो सुखकर मर जाता। लेकिन जो हो गये हैं, उन्हें हटाये बिना तुम्हें जिस समय ज्ञानपूर्वक पुत्र बनना हो, तुम्हारा स्थान बना ही हुआ है।

बापूके आशीर्वाद

[गुजरातीसे]
महादेवभाईनी डायरी, खण्ड ४
 
  1. स्पष्टतः यह उल्लेख उनके युद्ध-सम्मेलनमें भाग लेनेका है।