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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

था कि यदि इन रबी फसलोंके बारेमें काश्तकारोंकी आनावारी सही और सरकारी आनावारी गलत पाई जाती है तो यह निष्कर्ष अनुचित न होगा कि खरीफकी फसलोंके बारेमें भी काश्तकारोंका अनुमान सही है। मगर मेरा सुझाव स्वीकार नहीं किया गया। इतना और बता दूँ कि मैंने यह अनुरोध भी किया था कि जब कलक्टर साहब वड़थल जायें उस समय मुझे भी वहाँ उपस्थित रहनेकी अनुमति दी जाये। बात यह थी कि वड़थलको कसौटीके गाँवके रूपमें चुना गया था। किन्तु मेरा यह अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया गया।

यह विज्ञप्ति इस मानेमें भ्रामक है कि इसमें कहा गया है, मैंने जो आनावारी निकाली, उसमें रबीकी फसलों या रुईकी फसलका विचार नहीं किया। वास्तवमें मैंने हिसाब करते हुए इन फसलोंका विचार भी किया है। मैंने सिर्फ सरकारी पद्धतिके युक्तियुक्त होनेमें शंका की है। कारण स्पष्ट है। यदि एक हजारकी आबादीमें से केवल दो सौ लोग ही रबीकी फसलें उपजाते हैं तो उनके आधारपर रबीकी फसलें न उपजानेके कारण जिन शेष आठ सौ लोगोंकी फसलें चार आने या चार आनेसे कम पैदावार दिखाती हैं उनकी आनावारी बढ़ा देना उनके प्रति घोर अन्याय होगा।

लिम्बासीकी फसलोंपर लिखे गये अनुच्छेदमें तो इतनी ज्यादा गलतबयानियाँ हैं कि उन्हें देखकर मैं हैरतमें पड़ गया हूँ। अव्वल तो जब सरकारी जाँच की जा रही थी उस समय में वहाँ मौजूद नहीं था, और दूसरे जिस गेहूँकी कीमत १३,४४५ रुपये आँकी गयी है, उसमें पड़ौसके दो गाँवोंका गेहूँ भी शामिल था। लिहाजा जिन फसलोंकी कीमत १३,४४५ रुपये आँकी गई उनपर तीन जमाबन्दियोंकी अदायगी करनी थी। और फिर अठारह सौकी आबादी में १३,४४५ रुपयेकी बिसात ही क्या है? मैं यह माननेके लिए तैयार हूँ कि लिम्बासीके लोगोंको चावलकी फसलसे भी उतनी ही रकम प्राप्त हुई। किन्तु यदि एक व्यक्तिके भोजनपर प्रतिवर्ष ४० रुपयेका खर्च माना जाये तो लिम्बासीके लोगोंको केवल भोजनके लिए ही हर साल ७२,००० रुपये चाहिए। और जन-साधारणके लिए यह जानना शायद एक दिलचस्प बात होगी कि सरकारी आनावारीके अनुसार केवल लिम्बासीमें पैदा हुए गेहूँकी कीमत ८३,०२१ रुपये होनी चाहिए। यह आँकड़े मुझे कलक्टर साहबके सौजन्यसे प्राप्त हुए हैं। प्रेस-विज्ञप्ति तैयार करनेमें बरती गई लापरवाहीका अन्दाजा देनेके लिए में यह भी बता दूँ कि, यदि लिम्बासीके लोगोंका विश्वास किया जाये तो, जाँचके समय गेहूँकी सारी फसल खलिहानमें ही पड़ी हुई थी। उनके कथनानुसार उसमें से एक तिहाई दूसरे गाँवोंकी थी। तब लिम्बासीका गेहूँ ९,००० रुपयेसे भी कमका ही होगा। सरकारी आनावारी दस आने है। इस प्रकार वास्तविक उपजके हिसाबसे लिम्बासीके गेहूँकी आनावारी सरकारी दस आनेके मुकाबले सिर्फ एक आना थी। इसके अतिरिक्त बीजके लिए भी प्रति बीघा एक मन गेहूँकी जरूरत होती है, और लिम्बासीके काश्तकारोंको १९६५ बीघे गेहूँके खेतोंपर सिर्फ ३,००० मन (तीन रुपये प्रति मनके हिसाबसे ९,००० रुपयेका) गेहूँ हुआ; अर्थात् गेहूँकी पैदावार बीजसे थोड़ी ही ज्यादा हुई। और अन्तमें, जब लगानकी वसूलीके लिए फसलको खलिहानोंसे हटानेपर रोक लगी हुई थी तभी मैंने कलक्टरके सामने यह सुझाव रखा था कि मैं स्वयं लिम्बासी जाकर अपनी उपस्थितिमें गेहूँको तुलवा लूँ ताकि किसानोंकी