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खेड़ा-संकटपर सरकारी प्रेस-विज्ञप्तिका उत्तर

बातोंके सही या गलत होनेका कोई झगड़ा ही रह जाये। किन्तु, कलक्टरने मेरा सुझाव अस्वीकार कर दिया। इसलिए मेरा विचार है कि काश्तकारोंके आँकड़ोंको सही माना जाये।

अब सिर्फ यह दिखानेके लिए कि प्रेस-विज्ञप्ति कितनी ज्यादा भ्रामक है, मैं बता दूँ कि गुजरात-सभाने सत्याग्रह करनेकी सलाह देते हुए कोई प्रस्ताव पास नहीं किया। सभाने किसी जिम्मेदारीसे बचनेके लिए ऐसा किया हो, सो बात नहीं। किन्तु, मैंने स्वयं अनुभव किया कि सत्याग्रह के सम्बन्ध में किसी ऐसी सभामें प्रस्ताव नहीं पास करना चाहिए कि जिसका सारा कारोबार बहुमतके शासनके सिद्धान्तपर ही चलता हो। इसलिए गुजरात-सभाके प्रस्तावमें प्रत्येक व्यक्तिको अपने मनका मार्ग अपनाने के लिए स्वतन्त्र छोड़ दिया गया। हाँ, यह सच है कि सभाके अधिकांश सक्रिय सदस्य खेड़ाकी लड़ाईमें जुटे हुए हैं।

मैं इस आक्षेपको बिलकुल अस्वीकार करता हूँ कि मैंने लगान देने के इच्छुक लोगोंको वैसा करने से मना किया। प्रेस-विज्ञप्तिमें विभिन्न ताल्लुकोंसे की गई वसूलीकी रकमोंको दिखाते हुए जो आँकड़े दिये गये हैं, उनसे यदि कोई बात सिद्ध होती है तो यह कि कानूनकी मार उनपर बहुत गहरी पड़ी है और चौकीदारों तथा पटवारियोंका भय उनके लिए बहुत ज्यादा साबित हुआ है। कानूनकी कार्रवाईके अधीन कुर्की और नीलामीके बाद जब सरकार हिसाब बेबाक दिखाती है और किसी तरफ कोई बकाया नहीं बताती, तब क्या वह यही कहेगी कि राहत देने अथवा जाँच करनेके लिए कोई मामला ही नहीं था?

मैं मानता हूँ कि लगान मुलतवी करनेकी कोई कानूनी बाध्यता नहीं है। यदि वह मुलतवी किया जाता है तो एक कृपाके कार्यके रूपमें, और अधिकारपूर्वक कोई उसका दावा नहीं कर सकता। लेकिन तब यह राहत अधिकारियोंकी सनकपर भी आधारित नहीं है। उसका नियमन करनेके लिए समुचित रूपसे निर्धारित नियम है; और फिर सरकार यह दावा भी नहीं करती कि यदि फसलें चार आनेसे कम होतीं तो भी वह माफी नहीं देती। सारे मामले में एकमात्र मुद्दा रहा है आनावारी-सम्बन्धी मतभेद। यदि यह सच है कि राहत देने में सरकार अन्य परिस्थितियोंका―उदाहरणार्थ, प्रेस-विज्ञप्तिके ही शब्दों में, “सामान्य आर्थिक स्थिति” का―भी ध्यान रखती है तो महामारी तथा महँगाईके कारण इस वर्ष लगान मुलतवी कर देना और भी आवश्यक है। कलक्टरने मुझसे स्पष्ट शब्दों में कहा कि वे इस अन्तिम बातका कोई खयाल नहीं कर सकते। वे केवल नियमोंके अधीन वसूली मुलतवी कर सकते हैं, और नियमोंमें तो केवल फसलके आधारपर वसूली मुलतवी करनेकी बात कही गई है।

मेरा खयाल है, अब मैंने एक जाँच-समितिकी आवश्यकता सिद्ध करनेके लिए काफी कुछ बता दिया है, और मेरी नम्र सम्मतिमें यदि एक भी ऐसा काश्तकार पाया जाता है, जिसके नाम बकाया निकले–और वह इसलिए कि उसके पास कुर्कीके लिए कुछ रह नहीं गया है और उसकी जमीन बेचनेमें स्वयं सरकारको भी संकोच हो सकता है―तो एक सिद्धान्तके रूपमें, ऐसी जाँचका प्रबन्ध करवा देना योग्य कार्य होगा। लोगोंने पटवारियों द्वारा दिये गये आँकड़ोंके सही होनेमें सन्देह प्रकट किया है। कई मामलोंमें