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पत्र: दाभोलकरको

रह सकते हैं। मेरा खयाल है कि जब कोई मनुष्य कसौटीपर खरा न उतर सके, तब भी शास्त्रियर अपने-आपके बारेमें ठीक-ठीक हिसाब दे सकते हैं। मैं समझता हूँ, वे इस बातको जानते हैं और इसलिए बिलकुल निश्चिन्त रहते हैं। इसलिए कस्तूरी आयंगार या और किसीके भी मनमाने हमलोंके लिए मुझे या तुम्हें चिन्तित होनेकी जरूरत नहीं। करनेकी बात तो यह है कि हम सब मिलकर उन्हें अपने शरीरकी संभाल रखनेको मजबूर करें। मैं मानता हूँ कि उनका स्वास्थ्य ऐसा नहीं है, जो सुधर न सके।

हृदयसे तुम्हारा,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।

सौजन्य: नारायण देसाई

 

२७३. पत्र: दाभोलकरको

[कठलाल]
मई १५, १९१८

तुम्हारा पत्र मिला। मुझे तुमने इतने खुले दिलसे पत्र लिखा है, इसके लिए कृतज्ञ हूँ। मेरे पत्रमें[१] ‘नीति-कौशल’ की गंध तक नहीं है। मैंने अक्षरशः वही लिखा है, जो मैं मानता हूँ। तुमने मेरे विचारोंका ठीक-ठीक सार दिया है। मैं अवश्य ही यह मानता हूँ कि यदि हम चुपचाप लाखों लोगोंकी आहुति दे दें, तो हमें स्वराज्य आज ही मिल जायेगा। यह कैसे सम्भव है, यह बात यदि तुम मेरा पत्र पढ़कर न समझ सके हो, तो मैं इस पत्रमें तो उसे समझा ही नहीं सकता। इसलिए मेरी प्रार्थना है कि जबतक समझमें न आये, तबतक तुम उस पत्रको पढ़ो और उसके एक-एक शब्दपर विचार करो। यह प्रयत्न व्यर्थ न जायेगा। वह पत्र मैंने जल्दीमें नहीं, बहुत प्रयत्नसे, शुद्ध भावसे और देश-प्रेमसे प्रेरित होकर ही लिखा है। यदि उससे भी मेरा आशय पूरी तरह न समझा जा सके या उसके दो अर्थ निकलें, तो मैं समझता हूँ कि यह इस हदतक मेरी तपस्याकी कमी है। अगर देश मेरी योजनाको समझ ले और उसपर अमल करे, तो मेरा विश्वास है कि उसमें स्वराज्यका और दूसरी सैकड़ों बातोंका समावेश हो जाता है। पहले स्वराज्य दे दो, फिर हम लड़ाईमें [तुम्हारे साथ ] लड़ेंगे, यह कहना मुझे तो स्वराज्यका तत्त्व न समझने के समान लगता है। मैं लोक-प्रतिनिधिके रूपमें अपना कर्तव्य यह नहीं मानता कि वाइसरायको जितने पत्र लिखूँ, उन सबको जनताके सामने रखूँ ही। मैंने अबतक अपने जीवनमें प्रतिनिधिरूपमें जो-जो कार्य किये हैं, उनमें से

  1. उपलब्ध नहीं है।