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पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको

तुम न्यायकी आशा रखते हो, यही तो तुम्हारी भूल है। तुम स्वयं न्याय करते जाओ। जो प्रेम प्रतिदानकी आकांक्षा रखता है, वह प्रेम नहीं है। यदि तुम स्वयं प्रेममय हो तो तुममें दूसरेका प्रेम कहाँ समा सकता है? इसीमें अभेद भावका रहस्य छिपा हुआ है। मीराको जब प्रेमकी कटारी लगी तभी मीरा और प्रभु एक हुए। यही अद्वैतवाद है। इसमें से जितना ले सको, लेना; लेकिन प्रसन्न रहना।

बापूके आशीर्वाद

गांधीजी के स्वाक्षरोंमें मूल गुजराती पत्र (सी० डब्ल्यू० ५७२८) से।

सौजन्य: राधाबेन चौधरी

 

२७९. पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको

[मोतीहारी]
मई २३, १९१८

[प्रिय चार्ली,]

विलीकी[१] गिरफ्तारीका समाचार पढ़कर मुझे कोई आघात नहीं पहुँचा। वाइसरायकी भावनाओंके प्रति भी मेरी सहानुभूति है। जब ऐसा भयंकर युद्ध चल रहा है, उस समय इस प्रकारके कामकी जाँच करनेके लिए उनसे क्यों कहा जाये? विली और हमको नम्रतापूर्वक कष्ट सहन कर लेना चाहिए। विलीके मामलेमें किसी सिद्धान्तका सवाल नहीं है। उसमें जातीय द्वेषका प्रश्न भी नहीं है। इसी तरह जनताकी भावनाओंका भी नहीं है। अपने विचारों या कार्योंके लिए जेल हो जाये, तो कुछ लोग तो ऐसे होने चाहिए जो उसीमें सुख और संतोष मानें। आवश्यक तो यह है कि विलीके साथ पत्र-व्यवहार प्रारम्भ हो जाये। उसे जरूरत होगी, तो वह अपने छुटकारेके लिए लड़ लेगा। उसकी चिन्ता करते रहना उसके साथ अन्याय करना है। मुझे विश्वास है कि वह जहाँ भी है, सुखी है। मेरे खयालसे सार्वजनिक आन्दोलन अनावश्यक है। यदि आप मुझसे सहमत हों, तो एक निर्भीकतापूर्ण पत्र लिखकर वाइसरायको कष्ट देनेके लिए क्षमा माँग लें। मुझे कभी-कभी लगता है कि लड़ाईका भयंकर तनाव सहन करके भी पस्तहिम्मत न होनेवाले ये बहुत सारे अंग्रेज अवश्य ही योगी हैं। यदि उनकी यह योग-साधन। शुभ उद्देश्योंके लिए हो तो वे मोक्षके अधिकारी बन जायें।

[हृदयसे तुम्हारा,
मोहन]

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य: नारायण देसाई
  1. डब्ल्यू० डब्ल्यू० पियर्सन।
१४-२५