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२८०. पत्र: हनुमन्तरावको

मई २५, १९१८

[प्रिय हनुमन्तराव,]

मैं यह नहीं चाहता कि तुम [सवेंट्स ऑफ इंडिया] सोसाइटीसे सम्बन्ध तोड़ दो। बल्कि यह चाहता हूँ कि सोसाइटी में रहकर ही हिन्दीका काम करो। मैं चाहता हूँ कि शास्त्रियर तुम्हें इलाहाबाद जानेकी इजाजत दे दें। वहाँ तुम एक साल रहो और अच्छी तरह हिन्दी सीख लो। बादमें मद्रास जाकर अपने दूसरे कामोंके साथ-साथ तेलगु लोगोंमें हिन्दी-प्रचारका काम करो। तुम हिन्दीका अध्ययन कर लोगे, तो अपने कामका क्षेत्र व्यापक कर सकोगे और मौका पड़नेपर मद्रास प्रान्तके बाहर भी आम जनताका काम करनेकी शक्ति हासिल कर लोगे। मैं नहीं जानता कि तुम्हारा ध्यान इस ओर गया है या नहीं। मेरा तो गया ही है। द्रविड़ों और अन्य भारतीयोंके बीच लगभग न पटनेवाली खाई पड़ गई है। निश्चय ही हिन्दी भाषा इसे पाटनेवाला छोटे से-छोटा और कारगर सेतु है। अंग्रेजी कभी उसका स्थान नहीं ले सकती। जब सुसंस्कृत लोगोंकी साधारण भाषा हिन्दी हो जायेगी, तब शीघ्र ही हिन्दीका शब्द-भण्डार आम जनतामें भी फैल जायेगा। हिन्दीमें कोई ऐसी अवर्णनीय वस्तु है, जिससे वह सीखने में सबसे आसान होती है। और कारण चाहे जो हो, हिन्दी व्याकरणके साथ जितनी छूट ली जा सकती है, उतनी मैंने और किसी भाषाके व्याकरणके साथ ली जाती नहीं देखी। परिणामस्वरूप हिन्दी सीखनेमें मात्र स्मरण-शक्तिका ही काम है। इसीलिए मैं कहता हूँ कि राष्ट्रीय काम करनेके लिए हिन्दीका ज्ञान नितान्त आवश्यक है। सोसाइटीका एक सदस्य हिन्दी सीख ले, इससे सुन्दर बात और क्या होगी? एक बार श्री गोखलेने मुझसे कहा था कि वे सारे सदस्योंके लिए हिन्दी अनिवार्य करना चाहते हैं और यह चाहते हैं कि सोसाइटीकी बैठकोंमें हिन्दी ही बोली जाये। परन्तु उनकी सबसे बड़ी मुश्किल तमिल लोगोंकी, खास तौरपर शास्त्रियरकी थी। वे हिन्दी सीखनेके लिए अपने आपको बहुत बूढ़ा समझते हैं।

तुम सत्याग्रह आश्रमको सोसाइटीसे अलग मानते हो। मैं ऐसा नहीं मानता। अपने अन्तिम दिनोंमें श्री गोखलेकी ऐसी इच्छा थी कि गुजरातमें में उसकी शाखा खोलूँ और राजनीतिक दृष्टिसे मृतप्राय हो गये इस प्रान्तमें जीवन भरूँ। उस कार्यको पूरा करनेमें मेरा जो तुच्छ योगदान रहा है, उसपर मुझे गर्व है। कुछ ठोस कारणों-वश सत्याग्रह आश्रमको [सोसाइटीकी] शाखा यदि नहीं माना जा सकता तो यह कोई महत्त्वकी बात नहीं है। उसका काम तो यहाँ हो ही रहा है। उसमें जो-कुछ अच्छा है, मेरी रायमें उसका श्रेय सोसाइटीको ही है; उसकी जितनी त्रुटियाँ हैं, वे मेरी अपनी सीमाओंके कारण हैं। उनका दायित्व सोसाइटीपर नहीं है। समय पाकर जब मैं अपनी सीमाओंको लाँघ लूँगा, तब आश्रम सोसाइटीमें मिल जायेगा। उससे पहले तो यदि तुम आश्रममें भरती भी होना चाहो, तो भी तुम्हें केवल सोसाइटीसे मिले कर्जके तौरपर