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सम्पूर्ण गांधी वाङ‍्मय

भले ही जवाब न दे; किन्तु पत्र भी हिन्दी भाषामें लिखना चाहिए। इस तरह बहुतसे पत्र जायेंगे तो ट्रैफिक मैनेजरको विचार करना पड़ेगा। यह काम आसानीसे किया जा सकता है, और फिर भी इसका नतीजा बड़ा निकल सकता है।

मैं तम्बाकू और पान खानेके बारे में बोला हूँ। मेरी नम्र रायमें तम्बाकू व पान खानेकी आदत खराब और गन्दी है। हम सब स्त्री-पुरुष इस आदतके गुलाम हो गये हैं। इस गुलामीसे हमें छूटना चाहिए। कोई अनजान आदमी भारतमें आ पहुँचे, तो उसे जरूर ऐसा लगेगा कि हम दिन-भर कुछ-न-कुछ खाते रहते हैं। सम्भव है पानमें अन्नको पचानेका थोड़ा-बहुत गुण हो, किन्तु नियमसे खाया हुआ अन्न पान वगैराकी मददके बिना पच सकता है। नियमके साथ खानेसे पानकी जरूरत नहीं रहती। पानमें कोई स्वाद भी नहीं। जरदा भी जरूर छोड़ना चाहिए। विद्यार्थियोंको सदा संयम पालना चाहिए। तम्बाकू पीनेकी आदतका भी विचार करना जरूरी है। इस मामले में हमारे शासकोंने हमारे सामने बड़ा बुरा उदाहरण रखा है। वे जहाँ-तहाँ सिगरेट पिया करते हैं। उसके कारण हम भी उसे फैशन समझकर मुँहको चिमनी बना डालते हैं। यह बतानेके लिए बहुत-सी पुस्तकें लिखी गई हैं कि तम्बाकू पीनेसे नुकसान होता है। ईसाई कहते हैं कि जिस समय जनतामें स्वार्थ, अनीति, दुर्व्यसन फैल जायेंगे, उस समय ईसा मसीह फिर अवतार लेंगे। हम ऐसे समयको कलियुग कहते हैं। इसमें कितना मानने लायक है, इसका मैं विचार नहीं करता। फिर भी मुझे मालूम होता है कि शराब, तम्बाकू, कोकीन, अफीम, गाँजा, भाँग आदि व्यसनोंसे दुनिया बहुत दुःख पा रही है। इस जालमें हम सब फँस गये हैं, इसलिए हम उसके बुरे नतीजोंका ठीक-ठीक अन्दाज नहीं लगा सकते। मेरी प्रार्थना है कि आप विद्यार्थीगण ऐसे व्यसनोंसे दूर रहें।

यह इस सम्मेलनका सत्रहवाँ अधिवेशन है। पिछले अधिवेशनोंके सभापतियोंके भाषण मुझे भेजे गये थे। मैं उन्हें पढ़ गया हूँ। इन भाषणोंके आयोजनका उद्देश्य क्या है? अगर उद्देश्य यह है कि तुम उनसे कुछ सीखो तो इस बातका विचार करके देखना कि तुमने क्या सीखा है? किन्तु यदि उनके आयोजनका उद्देश्य अंग्रेजी शब्दोंकी सुन्दर रचना सुननेका ही हो तो मैं कहूँगा कि मुझे आपपर दया आती है। मैं तो ऐसा मानता हूँ कि भाषणोंका उद्देश्य ज्ञान प्राप्त करके उसके अनुसार बरताव करना है। तुममें से कितने विद्यार्थियोंने विदुषी एनी बेसेंटकी सलाह मानकर देशी पोशाक पसन्द की, खान-पान सादा बनाया और गन्दी बातें छोड़ी? प्रोफेसर यदुनाथ सरकार[१] की सलाहके मुताबिक छुट्टीके दिनोंमें गरीबोंको मुफ्त पढ़ानेका काम कितने विद्यार्थियोंने किया? इस तरहके बहुत-से सवाल पूछे जा सकते हैं। इनका जवाब मैं नहीं माँगता। आप स्वयं अपनी अन्तरात्माको इनका जवाब दें।

तुम्हारे ज्ञानकी कीमत तुम्हारे कामोंसे होगी। सैकड़ों किताबें दिमागमें भर लेनेसे कुछ लाभ मिल सकता है, किन्तु उसकी तुलनामें कामकी कीमत कई गुना ज्यादा है। दिमागमें भरे हुए ज्ञानकी कीमत सिर्फ उसके अनुसार किये गये कामके बराबर ही है। बाकीका सब ज्ञान दिमागके लिए व्यर्थका बोझ है। इसलिए मेरी तो सदा यही

  1. प्रसिद्ध इतिहासकार और लेखक।