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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

प्रश्न कठिन ही नहीं बल्कि बड़ा जटिल है। पूर्वग्रहोंको कानून बनाकर दूर नहीं किया जा सकता। धीरजपूर्वक कार्य करके और समझानेसे ही उन्हें दूर किया जा सकेगा। परन्तु दक्षिण आफ्रिकाकी संघीय सरकारका क्या उपाय किया जाये? वह सरकार तो कानून बना-बनाकर [रंगभेदके] पूर्वग्रह पुष्ट कर रही है। दोनों ओरसे किसी प्रकारकी हिंसात्मक कार्रवाई न होने पाये, इतनी सावधानी बरतते हुए यदि गोरे आदमियोंके पूर्वग्रहोंको स्वतन्त्र छोड़ दिया जाता हो, तो भारतवासी सन्तोष कर लेते। यदि गोरे लोग दक्षिण आफ्रिका में भारतीयोंका सर्वथा बहिष्कार भी कर देते तो भारतीय शिकायत नहीं कर सकते थे। वास्तवमें तो बहिष्कार पहलेसे ही जारी है। सामाजिक जीवनमें भारतीयोंको बिलकुल शामिल नहीं किया जाता। यद्यपि यह बहिष्कार भारतवासियोंको खटकता है परन्तु वे फिर भी उसको चुपचाप सहन करते हैं। परन्तु जब सरकार बीचमें दखल देती है और रंगभेदके आन्दोलनको कानूनी मान्यता प्रदान करती है तब बात दूसरी हो जाती है। भारतीय प्रवासी इस बातको बरदाश्त नहीं कर सकते कि उनके कहीं आने-जाने पर अपमानजनक नियन्त्रण लगाये जायें। रेलवेका टिकट बाबू भारतीयोंकी वेश-भूषा ठीक-ठाक या नहीं, इसका निर्णय करे, यह बात भारतीय सहन नहीं कर सकते। प्लेटफार्म इन्सपेक्टर उनको प्लेटफार्मके किसी नियत स्थानपर ही उठने-बैठने दे, यह बात भी उन्हें स्वीकार नहीं हो सकती। रेलका टिकट खरीदनेके लिए उन्हें कैदियोंकी भाँति पहले अपना प्रमाणपत्र दिखाना पड़े, तो वे वैसा नहीं करेंगे।

नये-नये अत्याचार और अपमानोंको, युद्ध चल रहा है, ऐसा कहकर छिपाया नहीं जा सकता। भारतको सम्मान-रक्षा करनेवाले भारतके साहसी पुत्र दक्षिण आफ्रिकामें अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं। हम लोग जो यहाँ हैं उनका कर्त्तव्य है कि हम उनकी सहायता करें। भारतके प्रत्येक स्थानमें सभाएँ करके दक्षिण आफ्रिकाके गोरोंको भली-भाँति बता देना चाहिए कि भारत अपनी सन्तानोंके प्रति उनके दुर्व्यवहारका विरोध करता है। हमें इन सभाओं में भारत-सरकार और साम्राज्य सरकारसे आग्रह करना चाहिए कि दक्षिण आफ्रिका-स्थित हमारे देशभाइयोंकी सुरक्षाके लिए वे कोई कारगर उपाय करें। मैं आशा करता हूँ कि दक्षिण आफ्रिकामें होनेवाले अन्यायको समाप्त करानेके लिए जो आन्दोलन होगा, उसका समर्थन करनेमें भारतमें रहनेवाले अंग्रेज लोग पीछे नहीं रहेंगे।

‘इंडियन ओपिनियन’ पत्रसे ली गई संलग्न सामग्रीके दूसरे भागमें जिस शिकायतका उल्लेख है उसके विषयमें श्री काछलियाके तारमें कोई संकेत नहीं किया गया है। यह शिकायत भी कुछ कम गम्भीर नहीं है। प्रभावकी दृष्टिसे यह वस्तुतः कहीं अधिक हानिकारक है। किन्तु प्रवासी भारतीय समाजको यह आशा है कि दक्षिण आफ्रिकाके सर्वोच्च न्यायालय में अपील करनेसे उस अन्यायकी निवृत्ति हो जायेगी। वास्तवमें वह प्रश्न सर्वोच्च न्यायालयसे ऊपरका है। यह कैसे हो सो मैं एक ही वाक्यमें समझा दूँ। एक प्रतिक्रियावादी अटर्नी जनरलने नेटालके सर्वोच्च न्यायालयसे एक नजीर करा ली है कि “देशी रियासतों“ की प्रजा विदेशी प्रजा है, ब्रिटिश प्रजा नहीं। अतएव देशी रियासतोंकी प्रजा नेटालके सर्वोच्च न्यायालयका जहाँतक प्रवासी नियंत्रण विधेयकके एक खण्ड विशेषके अन्तर्गत अपीलका सम्बन्ध है, संरक्षण पानेकी अधिकारी नहीं है। यदि नेटाल प्रान्तके सर्वोच्च न्यायालयका यह निर्णय सही है तो इसका परिणाम यह होगा