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पत्र: सर जॉर्ज बार्न्ज़को

कि दक्षिण आफ्रिकामें बसे हुए हजारों भारतीय निवासी उस सुरक्षासे वंचित हो जायेंगे जिसके लिए उन्होंने आठ वर्षों तक संघर्ष किया था और अब मान रहे थे कि वह उन्हें प्राप्त हो गई थी। दक्षिण आफ्रिकाके भारतीय प्रवासियों में कमसे-कम एक चौथाई लोग बड़ौदा और काठियावाड़ राज्यकी प्रजा हैं। यदि कोई कानून इन लोगोंको विदेशी समझता है तो उस कानूनमें परिवर्तन करना होगा। देशी राज्यों और उनकी प्रजाके लिए यह घोर अपमानकी बात है कि इन लोगोंको विदेशी समझा जाये।

आपका,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

बॉम्बे क्रॉनिकल, ७-६-१९१८ तथा स्पीचेज़ ऐंड राइटिंग्ज़ ऑफ महात्मा गांधी

 

२८७. पत्र: सर जॉर्ज बार्न्ज़को

साबरमती
जून २, १९१८

प्रिय सर जॉर्ज बार्न्ज़,

मेरा खयाल है कि उपनिवेशोंके प्रवासियोंके रुतबे से सम्बन्धित मामले आपके विभागके अन्तर्गत आते हैं। यदि यह ठीक हो तो मैं आपका ध्यान नत्थी किये गये कागजोंकी[१] ओर आकर्षित करना चाहता हूँ।

संघ-सरकार गोरोंके रंगविद्वेषी पूर्वग्रहोंकी फिरसे शिकार बनती जा रही है और जिसे सिद्धान्तों और कमजोर राष्ट्रोंकी प्रतिरक्षाका युद्ध माना जाता है वह दक्षिण आफ्रिकाके गोरोंपर कोई प्रभाव नहीं डाल पाया है। यह बात इन कागजातोंसे आप जान सकेंगे।

मैं जानता हूँ कि यह समस्या जटिल है। विधान बनाकर पूर्वग्रहोंको दूर नहीं किया जा सकता। वे धैर्यपूर्वक किये गये प्रयत्न और शिक्षासे ही दूर किये जा सकते हैं। किन्तु आशंका तो इस बातकी है कि संघ-सरकार विरोधी हितोंके प्रति समदृष्टि रखने के बजाय स्वयं इस जातीय पूर्वग्रहको प्रोत्साहन दे रही है। यदि मेरा विचार सही है तो प्रश्न यह उठता है कि वह अपनी साम्राज्य विरोधी गतिविधियोंमें ब्रिटिश झण्डे [यूनियन जैक) का सहारा कहाँ तक ले सकती है। क्या भारत-सरकार मद और जातीय विद्वेषके इस अशोभनीय प्रदर्शनके खिलाफ प्रबल विरोध करने के लिए साम्राज्य सरकारको प्रभावकारी ढंगसे प्रेरित नहीं कर सकती?

मेरा खयाल है कि आप जानते हैं कि दक्षिण आफ्रिकाके इस छोटेसे भारतीय उपनिवेशने युद्ध-कालमें, जैसा कि सर्वविदित है, बहुत उपयोगी सेवा की है और अब भी

  1. ये उपलब्ध नहीं हैं।