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२९४. पत्र: लॉर्ड विलिंग्डनको

बम्बई
जून ११, १९१८

प्रिय लॉर्ड विलिंग्डन,

मुझे विश्वास है, आप इस पत्रका गलत अर्थ नहीं लगायेंगे।

मेरे विचारमें आपने कल सर्वश्री तिलक और केलकरको[१] बोलनेसे रोककर एक गम्भीर भूल की है।[२] आपकी ओरसे ही उन्हें सूचना दी गई थी कि वे आलोचना तो कर सकते हैं; किन्तु कोई संशोधन पेश नहीं कर सकते। आपके रोकनेका अर्थ यह लगाया जायेगा कि आपने देशके एक महान् तथा वर्द्धमान दलका अपमान किया और इस प्रकार लोग नाराज होंगे। आपकी इस कार्रवाईसे कार्यकर्त्ताओंकी स्थिति बड़ी नाजुक और कठिन हो गई है और यदि श्री तिलक सरकार या साम्राज्यके शत्रु हैं तो निस्सन्देह आपने उन्हें इस मार्गपर चलनेके लिए और भी शक्ति प्रदान की है। किन्तु यदि आपने उन्हें और श्री केलकरको अपनी बात कहने दी होती तो वे सम्मेलनसे सन्तुष्ट होकर जाते और यह कहा जा सकता था कि आपने सबको उचित अवसर दिया। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि आप अपनी इस भारी भूलके लिए सार्वजनिक रूपसे खेद प्रकट करें या खेद प्रकट करते हुए दोनोंको बुला भेजें और उन्हें सहयोग देनेके लिए आमन्त्रित करें और उनके दृष्टिकोणपर उनसे बातचीत करें? इसमें आपको घाटा कुछ नहीं होगा, बल्कि लाभ ही होगा। इससे आप जनताकी नजरोंमें ऊँचे उठेंगे, आपकी प्रतिष्ठा बढ़ेगी, जनतासे सहायता प्राप्त करनेकी आपकी क्षमतामें वृद्धि होगी, तथा सम्भवतः स्वराज्यवादी दल [होमरूल पार्टी] को भी आप अपने पक्षमें कर सकेंगे, और देशमें अब जो आन्दोलन निश्चित रूपसे फूट पड़नेको[३] है, उसका अंकुर दब जायेगा।

मैं एक बार फिर आपसे अनुरोध करता हूँ कि आप इस पत्रका गलत अर्थ नहीं लगायेंगे। इसे लिखनेके पीछे मात्र सद्भावनाकी ही प्रेरणा है।[४]

आपका विश्वस्त मित्र,
मो० क० गांधी

[अंग्रेजीसे]

इंडिया ऑफिस ज्यूडिशियल ऐंड पब्लिक रेकर्ड्स: ३४१२/१८

  1. नरसिंह चिन्तामण केलकर; राष्ट्रवादी, राजनीतिक नेता, तिलकके साथी और जीवनचरित्र-लेखक तथा पूनाके मराठा के सम्पादक।
  2. यह घटना १० जूनको बम्बई प्रान्तीय युद्ध सम्मेलनमें घटी थी। सम्मेलनकी अध्यक्षता लॉर्ड विलिंग्डन कर रहे थे।
  3. अन्तमें ऐसा ही हुआ। देखिए “भाषण: बंबईकी सभामें”, जून १६, १९१८।
  4. गांधीजीको उसी दिन क्रिररसे निम्नलिखित उत्तर मिला: “परमश्रेष्ठकी इच्छानुसार सूचित करता हूँ कि आपका आजका पत्र मिला। इस पत्रके मजमूनपर उन्हें कुछ आश्चर्य और निराशा हुई। जहाँ वे सार्वजनिक मामलोंपर उचित मतभेदके लिए गुंजाइश रखनेको सदैव तैयार रहते हैं वहाँ वे महामहिम