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भाषण: बम्बईकी सभामें

सादर विरोध करनेके लिए इकट्ठे हुए हैं। मेरे हृदयमें लॉर्ड विलिंग्डनके प्रति बहुत आदर है। भारतके गवर्नरोंमें शायद वे ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं। सब जानते हैं कि हमारी आकांक्षाओंके सम्बन्धमें उनके विचार उदार हैं। इसलिए जब मैं इस सभाकी कार्रवाईका खयाल करता हूँ तब मुझे दुःख होता है। परन्तु मैं अनुभव करता हूँ कि मेरा जो स्पष्ट कर्त्तव्य है वह कितना ही दुःखद क्यों न हो―उसके पालनमें में अपने व्यक्तिगत आदर-भावको बाधक नहीं होने दे सकता। मेरा यह कर्त्तव्य साफ है। लॉर्ड विलिग्डनने सम्मेलन बुलाया था और उसमें होमरूल लीगोंके प्रमुख सदस्योंको सोच-समझकर निमन्त्रित किया था। निमन्त्रित सदस्य एक ओर तो अपमानित होना नहीं चाहते थे और दूसरी ओर गवर्नरको काफी पहले यह बता देना चाहते थे कि वे सम्मेलनमें अपने विचार रखना चाहते हैं। इसीलिए उन्होंने सम्मेलनका कार्यक्रम पूछा था। लॉर्ड विलिंग्डनको दिल्ली युद्ध सम्मेलनका[१] अनुभव भी था। वे जानते थे कि उस समय जो समितियाँ बनाई गई थीं उनमें सर्वप्रथम होमरूल लीगके सदस्योंको अपने विचार प्रकट करनेका अवसर दिया गया था। उन्हें यह भी मालूम था कि कई वक्ताओंने पहली ही बैठकमें राजनैतिक भाषण दिये थे। गवर्नर इन सब बातोंको जानते थे। फिर भी सम्मेलनमें जो-कुछ हुआ उसपर ध्यान दीजिए। सम्मेलनके प्रारम्भिक भाषणमें ही उन्होंने जानबूझकर होमरूल लीगोंपर आक्षेप किया। उन्होंने उनपर निरन्तर अड़ंगा लगानेका दोष लगाया। उन्हें विश्वास नहीं था कि वे सच्चे हृदयसे सहायता देना चाहती हैं। सम्मेलनके मंचसे इस प्रकार आक्षेप करना उचित न था। यदि गवर्नर उन लोगोंका सहयोग नहीं चाहते थे तो उन्हें उनको आमन्त्रित हो न करना चाहिए था। यदि वे उनके सहयोगके इच्छुक थे तो उसका तरीका यह न था कि वे शुरू में ही कह दें कि वे उन लोगोंपर विश्वास नहीं करते। उन्हें यह स्मरण रखना चाहिए था कि होमरूल लीग एक प्रकारसे बहुत बड़ी सहायता देती रही है। उनके द्वारा संचालित ‘क्रॉनिकल’ पत्रने लोगोंसे लगातार यही कहा है कि वे जितनी ज्यादा मदद दे सकें उतनी दें। मैं परमश्रेष्ठसे निवेदन करना चाहता हूँ कि लीगोंपर उनका आरोप लगाना एक व्यावहारिक भूल तो थी ही। परन्तु बात यहीं समाप्त नहीं हुई; श्री केलकरके पूछनेपर उन्होंने यह लिखा था:

सम्मेलनके सामने आनेवाले प्रस्तावोंको पेश करने, उनका अनुमोदन करने और समर्थन करने के लिए कुछ वक्ता पहलेसे निमन्त्रित किये जायेंगे। उन वक्ताओंके भाषणोंके पश्चात् खुली बहस प्रारम्भ होगी।
जो प्रस्ताव सम्मेलनके सामने रखे जायेंगे उनका मजमून दिल्ली सम्मेलनके प्रस्तावों को कार्यान्वित करनेकी दृष्टिसे बनाया जायेगा। ये प्रस्ताव केवल दो ही होंगे जिनमें से एकमें सामान्य बातें होगी और दूसरेमें कुछ निश्चित सुझाव होंगे। कोई औपचारिक संशोधन स्वीकार नहीं किया जायेगा। परन्तु यदि वक्ता वादविवादके दौरान कोई सुझाव देंगे या आलोचना करेंगे तो सरकार उनपर पूरा विचार करेगी।

यहाँ राजनैतिक चर्चाक बारेमें किसी प्रकारका निषेध नहीं है। श्री तिलक, श्री केलकर तथा अन्य सज्जनोंने वक्ताओंमें अपना-अपना नाम लिखाया और उचित समयपर

  1. वाइसरायका युद्ध-सम्मेलन। यह दिल्ली में २७ से २९ अप्रैल, १९१८ तक हुआ था।