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भाषण: बम्बईकी सभामें

सच्चे सदस्यके लिए साम्राज्यकी रक्षा हर हालतमें करना ही धार्मिक निष्ठाकी वस्तु होनी चाहिए। इसका कारण यह है कि साम्राज्यकी सुरक्षिततासे ही उसकी आशाएँ पूरी हो सकती हैं। साम्राज्यकी सहायतासे हाथ खींचनेका अर्थ है, राष्ट्रीय आत्मघात करना। हम खुदका नुकसान किये बिना अपने भावी साझेदारको हानि पहुँचाने की इच्छा कैसे कर सकते हैं?

इसलिए जहाँ मैं होमरूल लीगके सदस्योंकी इस रायसे सहमत हूँ कि हमें परमश्रेष्ठके अशिष्ट व्यवहारके लिए उनसे माफी मँगवाकर राष्ट्रीय सम्मानकी रक्षा अवश्य करनी चाहिए, वहाँ हम लोगोंका कर्त्तव्य है कि हम युद्धके संचालनमें अधिकारियोंको सहायता देनेका और अधिक उद्योग करें। हमें लॉर्ड विलिंग्डनकी गलतीसे क्रोधमें आकर स्वयं गलत कदम न उठाना चाहिए। यह हमारे अनेक हितोंका प्रश्न है। हम स्वराज्य चाहते हैं, सो भी जल्दीसे-जल्दी। मेरी इच्छा है, मैं अपने देशवासियोंको अपने इन शेंको माननेके लिए राजी कर सकूँ कि पढ़े-लिखे लोग सरकारके साथ बिलकुल बिना किसी प्रकारकी शर्तके और सच्चे दिलसे सहयोग करेंगे, तो हम स्वराज्यके बहुत समीप पहुँच जायेंगे। यह कार्य इसके अतिरिक्त अन्य किसी उपायसे सम्भव नहीं है। मेरे देशवासियोंको यह आशंका है कि हमारी अन्य आशाओंकी तरह स्वराज्यकी आशा भी व्यर्थ सिद्ध होगी। मैं उनकी इस आशंकामें उनसे सहमत नहीं हूँ। यहाँकी सरकारने, और सम्राट्की सरकारने भी, हमारे विश्वासको डिगानेके लिए कुछ न किया हो सो बात नहीं है। लेकिन बात यह है कि मेरा विश्वास उन सरकारोंकी नीतिमें किये गये परिवर्तनपर निर्भर नहीं है; वरन् वह हमारे अपने संघर्षकी ठोस बुनियादपर निर्भर है। निस्सन्देह यह बात सहज ही समझमें आ सकती है कि यदि हम जनशक्ति और साधनोंके विकासको नियन्त्रित कर पाये तो हमारी स्थिति और शक्ति अजेय हो जायेगी, क्योंकि स्वराज्य-प्राप्तिकी अपनी इस विनम्र योजनामें मैं कमसे-कम इन दो विभागोंपर पूर्ण नियन्त्रण पानेकी आकांक्षा रखता हूँ। इसमें सरकार हमारा सहयोग चाहती है। हमें उसकी बातपर विश्वास करना चाहिए। सरकार स्वेच्छासे और ईमानदारीसे दी गयी सहायताको अस्वीकार नहीं कर सकती। हमारे द्वारा रंगरूट दिये जानेका अर्थ है, कानूनन नहीं तो भावनासे, पैसेके लिए लड़ने वाली सेनाकी जगह राष्ट्रीय सेनाका निर्माण। सरकारी भरती विभागने जो कई हजार रंगरूट भरती किये हैं उनके बारेमें मैंने कभी नहीं माना कि उनकी भरतीका श्रेय हमको है। ये रंगरूट देशभक्तोंकी हैसियतसे भरती नहीं हुए हैं और न वे देशकी या साम्राज्यकी खातिर भरती हुए हैं, बल्कि उनको रुपयेका अथवा अन्य चीजोंका जो लालच दिया गया है उसके कारण भरती हुए हैं। हम जिन रंगरूटोंकी भरती करेंगे वे स्वराज्यके सैनिक होंगे।वे साम्राज्यके लिए लड़ने जायेंगे; परन्तु वे साम्राज्यके लिए इसीलिए लड़ेंगे कि वे साझेदार बननेके इच्छुक हैं। वे सर नारायणकी[१] भाँति यह न सोचेंगे कि अपने घर-बारकी हिफाजतके लिए लड़ना अपमानजनक है; बल्कि वे साम्राज्यकी खातिर लड़कर अपनी स्वतन्त्रता प्राप्त करनेकी आकांक्षाको पूर्णरूपसे सम्मानजनक मानेंगे।

  1. सर नारायण गणेश चन्दावरकर।