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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


बराबरीके लोग ही साझेदार हो सकते हैं। बिल्ली और चूहेमें साझेदारी नहीं होती। अंग्रेज हाथी हैं और हम चींटी, जबतक हमारी यह भावना दूर नहीं होती तबतक हमारे लिए स्वराज्यका कोई अर्थ नहीं हो सकता। हमें कोई भी बलवान मनुष्य डरा सकता है। यदि कोई पठान यहाँ आकर लाठी चलाने लगे तो हम सब भाग जायेंगे। यदि रेलके एक डिब्बेमें बहुतसे लोग बैठे होते हैं और उनमें एक झगड़ाल काबुली आ जाता है तो वह अन्य सबको उठा देता है और जहाँ जगह नहीं होती वहाँ भी बैठनेकी जगह कर लेता है। इतना ही नहीं वह अकेला ही चार व्यक्तियोंकी जगह घेरकर बैठता है और उसके आगे किसीकी बोलने तककी हिम्मत नहीं होती।

ऐसी भयकी स्थितिमें हम अंग्रेजोंके साथ किस तरह बराबरी कर सकते हैं? यदि मुझे कोई ढेढ मिलता है, मैं उसे अपने पास बिठाता हूँ और कुछ खानेके लिए भी कहता हूँ तो वह काँपता है। जब उसमें इतना मनोबल आयेगा कि वह मुझसे डरना बन्द कर देगा तब ही वह मेरे समान होगा। जबतक ऐसा न हो तबतक, हम दोनों समान हैं―यह कहना ऐसा ही है जैसे जलेपर नमक छिड़कना। साम्राज्यमें हमारी दशा भंगी-की है। अब इससे छुटकारा पाने के दो रास्ते हो सकते हैं―मैत्री-भावसे अथवा वैर-भावसे। यदि हम वैर-भावसे, इस स्थितिसे छुटकारा पाना चाहते हैं तो हमें उनको एक भी मनुष्य अथवा एक भी पाईकी सहायता नहीं देनी चाहिए। इतना ही नहीं, यदि अन्य लोग दे रहे हों तो हमें उन्हें भी रोकना चाहिए। हमें मित्र राष्ट्रोंकी पराजयकी कामना करनी चाहिये और अंग्रेजोंको लड़कर बाहर निकाल देना चाहिए। ऐसा करना अभीष्ट हो तो भी यह असम्भव है। यदि हम साम्राज्यवादी सरकारकी मदद नहीं कर रहे हैं तो भी देशके अन्य सब वर्ग उसकी मदद कर रहे हैं। हममें सरकारके अथवा अन्य किसीके विरुद्ध लड़नेकी शक्ति नहीं है। सरकार भारतसे दस लाख लोग और करोड़ों रुपयेकी सहायता लेनेमें समर्थ हो गई है। यह बात स्पष्ट दिखाई पड़ती है कि यदि हम अंग्रेजोंको वैर-भावसे, भारतसे खदेड़कर अपनी भंगीकी स्थितिसे मुक्त होना चाहते हों तो भी फिलहाल, और जहाँतक हमारी नजर पहुँच सकती है वहाँतक, एक लम्बे अर्से तक, शरीर-बलका प्रयोग करके और अंग्रेजोंसे युद्ध द्वारा ऐसा करना असम्भव है। हम इस प्रकार अंग्रेजोंसे सम्बन्ध नहीं तोड़ सकते।

इसलिए हम इस अधम स्थितिसे मैत्री-भावके द्वारा ही छुटकारा पा सकते हैं। और वह इस समय सरकारको पूरी शक्तिसे सहायता देनेपर ही सम्भव है। हम साम्राज्यके साझेदार होना चाहते हैं; किन्तु यदि साम्राज्य न हो तो साझेदार किसके साथ होंगे? हमारी आशाएँ साम्राज्यके अस्तित्वमें छिपी हुई हैं। हमें साम्राज्यके दोषोंके विरुद्ध अवश्य लड़ना चाहिए। भाई भाईके दोषोंके विरुद्ध लड़ता है। यदि एक भाई दूसरे भाईका हक छीननेका प्रयत्न करे तो दूसरा उसका विरोध करेगा। लेकिन जब पहले भाईपर आपत्ति आती है तो दूसरा भाई उसकी भरसक मदद करके भ्रातृ-भावका परिचय देता है और पुराने वैर-भावको भी भुला देता है। हम अंग्रेजोंके प्रति ऐसा व्यवहार कर ही नहीं सकते, यह माननेका कोई कारण नहीं है। हम साम्राज्यके अत्याचारोंका निस्सन्देह विरोध कर सकते हैं। यदि आज ही कोई नया अत्याचार हो तो हम उसका विरोध