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पत्र: एफ० जे० हॉजको

विश्वास नहीं रखता, परन्तु कदाचित् संसदीय शासनव्यवस्था निरंकुश शासनसे अच्छी होती है। मेरा खयाल है कि अब तुम्हें यह बात स्पष्ट दिख जायेगी कि मैं अहिंसाके सिद्धान्तका या सत्याग्रहका प्रचार उसी हालत में सबसे अच्छा कर सकता हूँ, जब मैं हिंसक लोगोंसे यह कहूँ कि वे अपनी हिंसाका उपयोग कमसे-कम कष्टप्रद ढंगसे करें। सम्भव है, उसीसे मैं उनको यह भी अनुभव करा सकूँ कि अहिंसा हिंसासे अधिक उपयोगी है।[१] यदि तुम्हारी समझमें मेरी बातें अब भी ठीक तरह न आई हों तो यथा सम्भव यहाँ आनेका प्रयत्न करो।

सस्नेह,
मोहन

[अंग्रेजीसे]
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरीसे।
सौजन्य: नारायण देसाई
 

३०५. पत्र: एफ० जे० हाँजको

[नडियाद]
जून २३, १९१८

आपके प्रेमपूर्ण पत्रके लिए मेरा हार्दिक धन्यवाद। हम अपनेको आपके परिवारकी अन्तरंग मण्डलीका सदस्य ही मानते हैं। जब कभी आपके साथ कुछ घंटे बितानेका अवसर मिलता था, बड़ा आनन्द आता था। आपने अपने पत्रमें मेरे साथियोंका उल्लेख किया है और पाठशालाओंको मर न जाने देनेके बारेमें चेतावनी दी गई है, इसलिए मैं उसे बाबू ब्रजकिशोरके पास भेजनेकी स्वतन्त्रता ले रहा हूँ। आप जानते हैं कि डॉ० देव चम्पारन छोड़नेसे पहले भीतीहरवामें एक पक्का भवन बनवा गये हैं। एक महिला शिक्षक जुटानेमें मुझे बहुत मुश्किल हो रही है। किन्तु मैं एक शिक्षिका ढूँढ सकूँगा, इसमें मुझे सन्देह नहीं है। मेरी हार्दिक इच्छा है कि कभी-कभी आप इन पाठशालाओंका निरीक्षण करते रहें। सवारीका प्रबन्ध करनेके लिए आप बाबू गोरखप्रसादसे कह दीजिए।

देवदास इस समय मद्रासमें है। वह वहाँ तमिल भाई-बहनोंके लिए हिन्दी कक्षाएँ चला रहा है।

  1. एन्ड्यूजने इसके उत्तर में लिखा था: “...मैं आपसे इस बातमें पूर्णतया सहमत हूँ कि स्वतन्त्र भारत हो अपना मार्ग स्वयं चुनकर संसारके सामने अहिंसाका सर्वोच्च उदाहरण रख सकता है न कि आजका परतन्त्र भारत। परन्तु फिर भी क्या आप यह बात नहीं सोच सकते कि भारत अपनी उस स्वतन्त्रताको केवल नैतिक बलसे ही प्राप्त करे―देशको गुलाम रखनेवाली सेनाका मुकाबला करनेके लिए स्थायी सेना बनाकर नहीं।”