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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

 

तुम कहते हो कि “भारतवासियोंने एक जातिके रूपमें अतीतमें पूर्णतया ज्ञानपूर्वक हिंसाका त्याग किया था और ज्ञानपूर्वक मानवताके पक्षमें खड़े होनेका निश्चय किया था।” क्या यह बात ऐतिहासिक दृष्टिसे सच है? मुझे तो ‘महाभारत’ या ‘रामायण’ में, यहाँतक कि अपने प्रिय तुलसीदासमें, जो आध्यात्मिक दृष्टिसे वाल्मीकिसे भी बहुत बढ़कर हैं, इस बातका कोई संकेत नहीं मिलता। इस समय मैं इन ग्रन्थोंके आध्यात्मिक अर्थोंका विचार नहीं करता। इनमें अवतारी पुरुषोंको अवश्य खूनके प्यासे, वैरसे भरे और दुश्मनके प्रति दयाहीन बताया गया है। शत्रुका पराभव करनेके लिए उन्होंने छल-छद्मका आश्रय लिया, ऐसा भी बताया गया है। इन ग्रन्थोंमें युद्धोंका वर्णन आजकल की अपेक्षा कम उत्साहपूर्ण नहीं है। योद्धाओंको विनाशके उन सभी शस्त्रास्त्रोंसे सुसज्जित किया है, जिनकी मानव कल्पना कर सकता है। रामकी कीर्ति गानेके लिए तुलसीदासजीने जो सर्वोत्तम भजन रचा है, उसमें शत्रुके नाश करनेकी उनकी क्षमताको पहला स्थान दिया गया है। उसके बाद मुस्लिम कालको ले लो। उस कालमें हिन्दू-मुसलमानोंसे कम लड़ाकू नहीं थे। इतना ही है कि वे संगठित नहीं थे। शरीर-बलमें दुर्बल और आपसी झगड़ोंसे छिन्नभिन्न हो गये थे। इस जातिके बारेमें तुम जिस त्यागका आरोपण करते हो, वह त्याग करनेकी बात मनुस्मृतिमें कहीं नहीं कही गई है। प्राणिमात्र के प्रति दयाके सिद्धान्तके रूपमें बौद्ध धर्म पूरी तरह असफल सिद्ध हुआ है। अगर दन्तकथाएँ सच हों, तो महान् शंकराचार्यने हिन्दुस्तानसे बौद्ध-धर्मको निकाल बाहर करनेके लिए अवर्णनीय निर्दयतासे काम लेनेमें संकोच नहीं किया था। और इसमें वे सफल भी हुए। उसके बाद ब्रिटिश-काल ले लो। जनताका जबरन निःशस्त्रीकरण हो गया है, परन्तु दिलसे मारनेकी इच्छा जरा भी नहीं गई। जैनोंमें भी यह सिद्धान्त बिलकुल असफल साबित हुआ है। इन लोगोंमें खून-खराबीसे डरनेका जबरदस्त वहम है। परन्तु दुश्मन हो तो उसके प्राणोंके नाशकी उन्हें उतनी ही परवाह है जितनी किसी यूरोपीयको। मेरे कहनेका अर्थ यह है कि अपने दुश्मनके विनाशसे जैनियोंको भी उतना ही आनन्द होगा जितना इस पृथ्वीपर और किन्हीं लोगोंको। हिन्दुस्तान के लिए अधिकसे-अधिक इतना ही कहा जा सकता है कि यहाँ कुछ व्यक्तियोंने अहिंसाके सिद्धान्तको लोकप्रिय बनानेके गम्भीर प्रयत्न किये, और इसमें उन्हें यहाँ संसारके किसी भी देशकी अपेक्षा ज्यादा सफलता मिली। मगर ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है कि इस [अहिंसा के सिद्धान्त] ने लोगों में गहरी जड़ जमा ली है।

तुम आगे कहते हो: “मेरा मुद्दा यह है कि अहिंसा एक ऐसी अवचेतन किन्तु सहज वृत्ति बन गई है, जिसे किसी भी समय जाग्रत किया जा सकता है; और जैसा कि आपने करके दिखा दिया है।” काश, यह सच होता। परन्तु मैं देखता हूँ कि मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कर दिखाया। आफ्रिकामें जब मित्रोंने कहा कि अनाक्रामक प्रतिरोधका सहारा भारतीयोंने कमजोरोंके हथियारके रूपमें लिया है, तब मैं इसे उस समय अपना अपमान समझता था और उसपर हँसता था। परन्तु ऐसा कहनेवाले सच्चे थे और मैं झूठा। मेरे अकेलेके बारेमें और दूसरे कुछ साथियोंके बारेमें यह कहा जा सकता है कि वह हमारी शक्तिका प्रतीक था और उसे ‘सत्याग्रह’ कहा जा सकता था। किन्तु अधिकांश लोगोंके लिए तो वह केवल शुद्ध अनाक्रामक प्रतिरोध ही था। उसका आश्रय उन्होंने इसीलिए