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पत्र: सी० एफ० एन्ड्रयूजको

लिया था कि उनमें हिंसाका मार्ग अपनानेकी ताकत नहीं थी। इस सत्यका अनुभव मुझे खेड़ामें बार-बार हुआ। यहाँके लोगोंने अपेक्षाकृत अधिक स्वतन्त्र होनेके कारण मेरे साथ निःसंकोच बातचीत की और मुझसे साफ कहा कि उन्होंने मेरा बताया उपाय इसीलिए स्वीकार किया है कि दूसरा मार्ग अख्तियार करनेकी उनमें शक्ति नहीं है। वह निःसन्देह उनकी दृष्टि में मेरे मार्गकी अपेक्षा कहीं ज्यादा पुरुषोचित था। मुझे भय है कि चम्पारन या खेड़ाके लोगों में वह साहस नहीं है कि निर्भय होकर फांसीके तख्तेपर चढ़ जायें या गोलियोंकी बौछार झेल लें और फिर भी कह दें कि ‘हम तुम्हारा लगान नहीं देंगे’ या ‘तुम्हारे लिए काम नहीं करेंगे।’ यह साहस उनमें है ही नहीं। और मेरा दृढ़ मत है कि जबतक उन्हें अपनी रक्षा करनेकी तालीम नहीं मिलती, तबतक उनमें ऐसी निर्भयता पैदा नहीं हो सकती। अहिंसाका उपदेश तो उस आदमीके लिए है, जिसके तन-मनमें जीवन-शक्तिका पूरा जोश हो और जो अपने शत्रुओंके सामने सीना तानकर खड़ा हो सके। मेरे खयालसे अहिंसाको पूरी तरह समझने और अच्छी तरह पचानेके लिए शारीरिक शक्तिका पूरा विकास अनिवार्य है।

मैं इस बातमें तुम्हारे साथ अवश्य सहमत हूँ कि हिन्दुस्तान अपने नैतिक बलसे पश्चिमसे या पूर्वसे, उत्तरसे या दक्षिणसे कितनी ही सेना चढ़ आये, तो भी उसे अपने तटोंसे पीछे हटा सकता। सवाल यह है कि ‘ऐसा नैतिक बल वह किस तरह पैदा कर सकता है?’ क्या इस नैतिक बलके प्राथमिक सिद्धान्त भी वह तभी समझ सकता है, जब पहले वह अपने शरीरको बलवान् बना लेगा? आज करोड़ों मनुष्य हर रोज प्रातःकाल जगन्नियन्ताके नामकी इस प्रकार हँसी उड़ाते हैं:

“वह निष्कल ब्रह्म मैं हूँ, पंच महाभूतोंसे बना हुआ यह देह मैं नहीं हूँ। मैं हर रोज सवेरे अपने हृदय में स्फुरित होनेवाले आत्मतत्त्वका स्मरण करता हूँ। जिसके अनुग्रहसे समस्त प्रकारकी वाणी प्रकट होती हो, वेद भी जिसका वर्णन ‘नेति-नेति’ कहकर करते हैं।”[१]

मैं कहता हूँ कि ये श्लोक बोलकर हम जगन्नियन्ताकी हँसी ही उड़ाते हैं, क्योंकि हम उसके भव्य अर्थका कुछ भी विचार किये बिना उसे तोतेकी तरह रट जाते हैं। इस श्लोक में जो कुछ है, उसके पूरे अर्थका एक भी भारतीयको साक्षात्कार हो जाये, तो हिन्दुस्तानपर चढ़ाई करनेवाली बलवान्-से-बलवान् सेनाको हटा देनेके लिए वह अकेला काफी होगा। किन्तु यह ताकत हममें आज नहीं है। और जबतक देशमें स्वतन्त्रता और निर्भयताका वातावरण न फैल जाये, तबतक वह आ भी नहीं सकेगी। सवाल यह है कि यह वातावरण कैसे पैदा किया जाये? यह तभी पैदा होगा जब अधिकांश निवासियोंमें यह विश्वास उत्पन्न हो सके कि उनमें किसी मनुष्य या पशुकी हिंसाके विरुद्ध अपनी रक्षा करने की ताकत है। यह तो स्पष्ट है कि किसी बालकको में मोक्षका अर्थ

 
  1. ‘तद् ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघ:’
    ‘प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्वम्’
    ‘वाचो विभान्ति निखिला यदनुग्रहेण
    यन्नेतिनेतिवचनैनिंगमा अवोचुः’